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________________ अनेकान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेव 65 है।' उनके द्वारा रचित तत्त्वार्थवार्तिक में जैनदर्शन के प्राण अनेकान्तवाद को बहुत व्यापक रूप दिया गया है। जितने विवाद उत्पन्न किये गये हैं उन सबका समाधान प्रायः अनेकान्त रूपी तुला के आधार पर ही किया गया है । खोजने पर ऐसे बिरले ही सूत्र मिलेंगे, जिसमें 'अनेकान्तात् ' वार्तिक न हो चतुर्थ अध्याय के अन्त में अनेकान्तवाद के स्थापनपूर्वक नय सप्तभंगी और प्रमाण सप्तभंगी का विवेचन किया गया है। “आचार्य अकलंकदेव ने वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है, नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार सर्वथा एकान्त के निराकरण करने को भी अनेकान्त कहा है। जैनदर्शन अनेकान्तवादी है । उसका मत है कि प्रत्येक वस्तु परस्पर में विरोधी कहे जाने वाले नित्यत्व - अनित्यत्व, एकत्व - अनेकत्व, अस्तित्व - नास्तित्व आदि अनन्त धर्मों का समूह है और वह प्रमाण का विषय है अनेकान्तवादी होने के कारण जैनदर्शन में शब्द की प्रतिपादकंत्व शक्ति पर भी विचार किया और उसकी असामर्थ्य का अनुभव न करके स्याद्वाद के सिद्धान्त का आविष्कार किया । उसने देखा कि वस्तु के अनन्त धर्म होने पर भी वक्ता अपने-अपने दृष्टिकोण से उसका विवेचन करते हैं । द्रव्य दृष्टि वाला उसे नित्य कहता है, पर्यायदृष्टि वाला उसे अनित्य कहता है, अतः इन विभिन्न दृष्टियों का समन्वय होना आवश्यक है। आचार्य अकलंकदेव ने वस्तु व्यवस्था के निर्धारण में अनेकान्त प्रक्रिया की प्रतिष्ठापना में अनेक प्रकार से विचार किया है जिनका हम निम्न बिन्दुओं में वर्णन कर रहे हैं। तत्त्व व्यवस्था में अनेकान्त - आ० अकलंक ने लिखा है कि जीव, अजीव और आस्रवादि के भेदाभेद का अनेकान्त दृष्टि से विचार करना चाहिए, क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय में एक को प्रधान और एक को गौण करके, विवक्षा और अविवक्षा 'के भेद से जीव और अजीव में आस्रवादि का अन्तर्भाव हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। जैसे आनवादि द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार के हैं । द्रव्य पुद्गल रूप है और भावास्रवादि जीव रूप । पर्यायसमर्थक नय की गौणता और द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता से तथा आस्रवादि प्रतिनियत अपर्यायार्थ की अविवक्षा एवं अनादि १. श्रीमद्भट्टाकलंकस्य पातु पुण्या सरस्वती, अनेकान्तमरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया ।। आ० शुभचन्द्र : ज्ञानार्णव सर्ग १/१७ २. पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित न्यायकुमुदचन्द्र की प्रस्तावना, पृ० ४४ ३. सदसन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणों ऽनेकान्तः, अष्टशती, अष्टसहस्री, पृ० २८६
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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