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________________ अनेकान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेव डॉ० अशोक कुमार जैन* भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन का अप्रतिम स्थान है। भगवान् महावीर ने अनेकान्तदृष्टि रूप, जिसे हम जैनदर्शक की आत्मा कहते हैं, एक वह व्यवहार्य मार्ग निकाला जिसके समुचित उपयोग से मानसिक, वाचिक तथा कायिक अहिंसा पूर्णरूप से पाली जा सकती है। इस तरह भगवान् महावीर की यह अहिंसास्वरूप अनेकान्तदृष्टि तो जैनदर्शन के भव्य प्रासाद का मध्य स्तम्भ है। इसी से जैनदर्शन की प्राणप्रतिष्ठा है। भारतीय दर्शन सचमुच इस अतुल सत्य को पाये बिना अपूर्ण रहता। जैनदर्शनं ने इस अनेकान्तदृष्टि के आधार से बनी हुई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थराशि देकर भारतीय दर्शनशास्त्र के कोषागार में अपनी ठोस और पर्याप्त पूंजी जमा की। पूर्वकालीन युगप्रधान समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि दार्शनिकों ने इसी दृष्टि के समर्थन द्वारा सत्-असत्, नित्यत्वानित्यत्व, भेदाभेद, पुण्य-पाप, अद्वैत-द्वैत, भाग्य-पुरुषार्थ आदि विविध वादों में पूर्ण सामञ्जस्य स्थापित किया। मध्यकालीन आ० अकलंक, आ० हरिभद्र आदि तार्किकों ने अंशतः परपक्ष खण्डन करके भी उसी दृष्टि को प्रौढ़ किया। उसी दृष्टि के विविध प्रकार के उपयोग के लिए. सप्तभंगी, नय, निक्षेप आदि का निरूपण हुआ। इस तरह भगवान् महावीर ने अपनी अहिंसा की पूर्ण साधना के लिए अनेकान्तदृष्टि का आविर्भाव करके जगत् को वह ध्रुव बीजमन्त्र दिया, जिसका समुचित उपयोग संसार को पूर्ण सुख और शान्ति का लाभ करा सकता है। आचार्य अकलंकदेव का जैनन्याय में वही विशिष्ट स्थान है जौ बौद्धदर्शन में धर्मकीर्ति, मीमांसा दर्शन में भट्टकुमारिल, प्रभाकर दर्शन में प्रभाकर मिश्र, न्याय वैशेषिक में उद्योतकर और व्योमशिव तथा वेदान्त में शंकराचार्य का है। आचार्य शुभचन्द्र ने मुग्ध होकर उनकी पुण्य सरस्वती को अनेकान्त गगन की चन्द्रलेखा लिखा - • सहायक आचार्य, जैन विद्या एवं तुलनात्मक दर्शन विभाग, जैन विश्व भाती संस्थान, लाडनूं, नागौर (राज०-३३४१३०६) १. प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य द्वारा लिखित अकलंकग्रन्थत्रय की प्रस्तावना, पृ० ६२
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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