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अकलंकदेव का दर्शनान्तरीय अध्ययन
प्रमाण का लक्षण और भेद, वैशेषिक आदि के द्वारा अभिमत मोक्ष का लक्षण, नैयायिकों की उपमान प्रमाण की मान्यता, मीमांसकों की अर्थापत्ति प्रमाण की मान्यता, इत्यादि अनेक विषयों की अकलंकदेव ने अपने ग्रन्थों में आलोचना की है किन्तु विचार के भय से मैंने यहाँ उनका विवेचन प्रस्तुत नहीं किया है। उपसंहार :
जैनन्याय के प्रतिष्ठापक अकलंक एक युगप्रधान आचार्य हुए हैं। बौद्धदर्शन में धर्मकीर्ति का और मीमांसादर्शन में कुमारिल का जो स्थान है वही स्थान जैनदर्शन में अकलंकदेव का है। वे एक परीक्षा-प्रधान आचार्य थे और अच्छी तरह से परीक्षा करने के बाद ही किसी बात को स्वीकार करते थे। अकलंकदेव इतने प्रसिद्ध और प्रभावशाली आचार्य हुए हैं कि उनकी प्रशंसा तथा स्तुति अनेक ग्रन्थों और शिलालेखों में पायी जाती है। भट्टाकलंकदेव का जन्म दक्षिण भारत में हुआ था और वे राजपुत्र थे। भट्ट उनकी उपाधि थी और सब लोगों के द्वारा पूज्य होने के कारण उनको देव कहा जाता है। ____यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अकलंकदेव के द्वारा रचित अष्टशती आदि ग्रन्थ सूत्र की तरह अतिगंभीर, अर्थबहुल, क्लिष्ट, दुरूह और गूढ़ हैं। यही कारण है कि अच्छे-अच्छे विद्वान् भी इन ग्रन्थों को समझने में असमर्थ रहते हैं। इसीलिए सिद्धि विनिश्चय के टीकाकार आचार्य अनन्तवीर्य को कहना पड़ा
.... देवस्यानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्तु तु सर्वतः । ... . न जानीतेऽकलंकस्य चित्रमेतत् परं भुवि।।
अर्थात् यह बड़े आश्चर्य की बात है कि मैं अनन्तवीर्य विशिष्ट ज्ञानशक्ति सम्पन्न होकर के भी अकलंकदेव के पद (वाक्यार्थ) को पूर्ण रूप से व्यक्त करना नहीं जानता.। .
- ऐसे उत्कृष्ट ज्ञान और अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न आचार्य अकलंकदेव का सादर स्मरण करते हुए उनकी पुण्य सरस्वती की प्रशंसा में शुभचन्द्रचार्य द्वारा 'ज्ञानार्णव' में लिखित एक श्लोक यहाँ उद्धृत है
श्रीमद्भट्टाकलंकस्य पातु पुण्या सरस्वती। अनेकान्तमरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया।।
इति शुभं भूयात्।