________________
. ४४
प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
अर्थात् जिस वस्तुरूप ( भूतलविशेष ) में वस्तु ( घट ) की सत्ता के ज्ञान के लिए प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाणों की प्रवृत्ति नहीं होती है वहाँ उस वस्तु के अभाव को जानने के लिए अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति होती है । ___ तात्पर्य यह है कि भूतल में घटाभाव का ज्ञान अभाव प्रमाण से होता है । किसी वस्तु के अभाव का ज्ञान प्रत्यक्षादि अन्य किसी प्रमाण से संभव नहीं है । - अभाव के चार भेद हैं-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और
अन्यन्ताभाव । क्षीर में दधि के अभाव का नाम प्रागभाव है । दधि में क्षीर के अभाव का नाम प्रध्वंसाभाव है । घट में के पट के अभाव का नाम अन्योन्याभाव है । और पृथिवी में चैतन्य के अभाव का नाम अत्यन्ताभाव है । यदि इन चार प्रकार के अभावरूप पदार्थों का व्यवस्थापक अभाव प्रमाण न हो तो प्रतिनियत पदार्थ की व्यवस्था का विलोप हो जायेगा । इस अभाव प्रमाण का भी अन्य किसी प्रमाण में अन्तर्भाव न होने के कारण यह एक पृथक् प्रमाण है । इस प्रकार षट्प्रमाणवादी मीमांसक ने प्रत्यक्ष और अनुमान के अतिरिक्त आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव प्रमाण की सिद्धि करके अपना पक्ष प्रस्तुत किया है । उत्तरपक्ष
मीमांसकों ने जिन छह प्रमाणों को माना है उनमें से प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम को पृथक् प्रमाण मानना तो ठीक है, किन्तु उपमान, अर्थापत्ति और अभाव को पृथक् प्रमाण मानना ठीक नहीं है । मीमांसक ने जिस प्रकार आगम आदि प्रमाणों को प्रमाणान्तर होने के कारण बौद्धदर्शन द्वारा अभिमत प्रमाणों की द्वित्वसंख्या का व्याघात बतलाया है उस प्रकार जैनदर्शन द्वारा अभिमत प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाणों की द्वित्वसंख्या का व्याघात संभव नहीं है । क्योंकि आगम, उपमान आदि अन्य समस्त प्रमाणों का अन्तर्भाव परोक्ष प्रमाण में हो जाता है । जैनदर्शन में परोक्ष प्रमाण के ५ भेद माने गये हैं जो इस प्रकार हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । अतः परोक्ष प्रमाण में अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव प्रमाणों का अन्तर्भाव हो जाने के कारण जैनदर्शनं द्वारा अभिमत प्रमाणों की द्वित्वसंख्या का व्याघात नहीं होता है । मीमांसक की तरह