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द्वितीय परिच्छेद : सूत्र २
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जैनदर्शन भी प्रत्यक्ष अनुमान और आगम को स्वतन्त्र प्रमाण मानता है । अब इस बात का विचार करना है कि मीमांसक द्वारा माने गये उपमान, अर्थापत्ति और अभाव प्रमाण का अन्तर्भाव किस प्रमाण में होता है ।
अर्थापत्ति का अनुमान में अन्तर्भाव
उपमान प्रमाण का अन्तर्भाव प्रत्यभिज्ञान में होता है । इस बात को तृतीय परिच्छेद में प्रत्यभिज्ञान प्रमाण के निरूपण के अवसर पर युक्तिपूर्वक सिद्ध करेंगे । अर्थापत्ति का अन्तर्भाव अनुमान प्रमाण में होता है । अर्थापत्ति में एक अर्थ अर्थापत्ति का उत्थापक होता है जो अदृष्ट अर्थ की कल्पना करता है । श्रुतार्थापत्ति में अर्थापत्ति का उत्थापक अर्थ है - दिन में भोजन नहीं करने पर भी देवदत्त में पीनत्व का होना और अदृष्ट अर्थ हैरात्रिभोजन । अब यहाँ प्रश्न यह है कि अर्थापत्ति के उत्थापक अर्थ का अदृष्ट अर्थ के साथ कोई सम्बन्ध है या नहीं और यदि है तो वह सम्बन्ध अवगत है या अनवगत । अर्थापत्ति के उत्थापक अर्थ का अदृष्ट अर्थ के साथ सम्बन्ध मानना आवश्यक है और उस सम्बन्ध का अवगत ( ज्ञात ) होना भी आवश्यक है । इसके बिना अर्थापत्ति का उत्थापक अर्थ उदृष्ट अर्थ की कल्पना नहीं कर सकता है ।
तात्पर्य यह है अर्थापत्ति के उत्थापक अर्थ में और अदृष्ट अर्थ में धूम और अग्नि की तरह सम्बन्ध अवश्य है और उस सम्बन्ध का ज्ञान होने पर ही अर्थापत्ति उत्थापक अर्थ से अदृष्ट अर्थ को जाना जाता है । जब हम कहते हैं कि देवदत्त रात्रि में भोजन करता है, क्योंकि दिन में भोजन नहीं करने पर भी वह मोटा है, तो यहाँ अर्थापत्ति अनुमान का ही एक रूप सिद्ध होता है । यहाँ एक अर्थ साध्य है और दूसरा अर्थ साधन है । रात्रि भोजन साध्य है और दिन में भोजन नहीं करने पर भी पीनत्व का होना साधन है । अनुमान की तरह अर्थापत्ति में भी साधन से साध्य की सिद्धि की जाती है । अतः अर्थापत्ति का अनुमान में अन्तर्भाव मानना युक्तिसंगत है ।
अभाव का प्रत्यक्षादि में अन्तर्भाव
मींमासक के अनुसार घटरहित भूतल में घटाभाव का जो ज्ञान होता है वह अभाव प्रमाण से होता है । इस विषय में जैनदर्शन की मान्यता यह है कि जब हम प्रत्यक्ष से घटरहित भूतल देख रहे हैं तब प्रत्यक्ष से ही हम