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द्वितीय परिच्छेद : सूत्र २
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हैं । यहाँ किसी ज्ञात अर्थ के द्वारा अज्ञात अर्थ की कल्पना की जाती है । अर्थापत्ति ६ प्रकार की होती है - ( १ ) प्रत्यक्षपूर्विका अर्थापत्ति (२) अनुमानपूर्विका अर्थापत्ति (३) उपमानपूर्विका अर्थापत्ति (४) अर्थापत्तिपूर्विका अर्थापत्ति (५) अभावपूर्विका अर्थापत्ति और (६) श्रुतार्थापत्ति । श्रुतार्थापत्ति को आगमपूर्विका अर्थापत्ति भी कह सकते हैं । इसका उदाहरण इस प्रकार है
पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते ।
अर्थात् पीन ( मोटा ) देवदत्त दिन में नहीं खाता है । इस वाक्य को सुनकर सुननेवाला व्यक्ति देवदत्त में रात्रि भोजन की कल्पना करता है । क्योंकि दिन में भोजन नहीं करने पर मोटा होना रात्रिभोजन के बिना नहीं बन सकता है । इस प्रकार देवदत्त में रात्रि भोजन की कल्पना करना श्रुतार्थापत्ति है । अर्थापत्ति का अन्तर्भाव भी न प्रत्यक्ष में होता है और न अनुमान में होता है । इसलिए यह एक पृथक् प्रमाण है ।
अभावप्रमाणविचार
किसी आधारविशेष में किसी निषेध्य वस्तु के अभाव का जो ज्ञान होता है वह अभाव प्रमाण कहलाता है । जैसे भूतल में घटाभाव का जो ज्ञान होता है वह अभाव प्रमाण के द्वारा होता है । अभाव प्रमाण का लक्षण इस प्रकार है
गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ॥
अर्थात् जिस स्थान में किसी वस्तु का निषेध करना है पहले उस स्थान का ग्रहण (ज्ञान) होना चाहिए । फिर प्रतियोगी (निषेध्य वस्तु ) का स्मरण होना चाहिए । तब बाह्येन्द्रियों की अपेक्षा के बिना ही नास्तिता ( घटाभाव ) का जो ज्ञान होता है वह अभाव प्रमाण है । इसे मानस ज्ञान कहा गया है । भूतल में घट का निषेध करने के लिए पहले भूतल का ग्रहण होना चाहिए । तदनन्तर घट का स्मरण होना चाहिए । तभी ' इस भूतल में घट नहीं है' ऐसा घटाभाव का ज्ञान होता है । और भी देखिए -
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प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तुसत्तावबोधार्थं तत्राभावप्रमाणता ॥