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द्वितीय परिच्छेद : सूत्र २
अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव । उनका कहना है कि आगम आदि प्रमाणों का प्रत्यक्ष तथा अनुमान में अन्तर्भाव संभव नहीं है । अतः इनका पृथक् अस्तित्व मानना अपरिहार्य है । जिस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान सामग्री के भेद से भिन्न प्रमाण हैं उसी प्रकार आगमादि भी भिन्न भिन्न प्रमाण हैं । आगम, उपमान आदि की उत्पादक सामग्री पृथक् पृथक् होने के कारण ये सब प्रत्यक्ष और अनुमान से प्रमाणान्तर हैं । अब इन्हीं का यहाँ पृथक् पृथक् विचार किया जा रहा है ।
आगमप्रमाणविचार आगम प्रमाण को शाब्दप्रमाण भी कहते हैं । शाब्दज्ञान शब्दरूप सामग्री से उत्पन्न होता है । कहा भी है
शब्दादुदेति यज्ज्ञानमप्रत्यक्षेऽपि वस्तुनि ।
शाब्दं तदिति मन्यन्ते प्रमाणान्तरवादिनः ॥ अर्थात् अप्रत्यक्ष वस्तु में शब्द से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे सांख्य आदि । प्रमाणान्तरवादी शाब्दज्ञान कहते हैं । शाब्दज्ञान का प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव नहीं हो सकता है । क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान में अर्थ का प्रतिभास स्पष्ट होता है और शाब्दज्ञान में अर्थ का प्रतिभास अस्पष्ट होता है । इसी तरह अनुमान में भी शाब्दज्ञान का अन्तर्भाव नहीं हो सकता है । क्योंकि अनुमान का जैसा विषय है वैसा आगम का नहीं है । तथा आगम त्रिरूपलिंगजन्य भी नहीं है । अनुमान का विषय है-धर्म ( अग्नि ) विशिष्ट धर्मी ( पर्वत ) और आगम का विषय इससे भिन्न है ।हेतु के पक्षधर्मत्व आदि तीन रूप होते हैं तथा अनुमान तीनरूप वाले हेतु से उत्पन्न होता है । किन्तु आगम तीनरूप वाले हेतु से उत्पन्न नहीं होता है । शब्द का अर्थ के साथ अन्वय और व्यतिरेक भी नहीं पाया जाता है । ऐसा नहीं है कि शब्द के होने पर अर्थ हो और शब्द के अभाव में अर्थ न हो । पिण्डखर्जूर आदि शब्द के सुनने पर पिण्डखजूर आदि अर्थ की उपलब्धि नहीं होती है । रावण, शंखचक्रवर्ती आदि शब्द वर्तमान में सुने जाते हैं किन्तु उनका वाच्य अर्थ भूतकाल और भविष्यकालवर्ती है । इस प्रकार शब्द का अर्थ के साथ अन्वय का अभाव सिद्ध होता है । और अन्वय के अभाव में व्यतिरेक भी नहीं बनता है । शब्द के होने पर अर्थ का होना अन्वय है और शब्द के अभाव में अर्थ का