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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
प्रमेय अथवा विषय एक ही होता है, भिन्न भिन्न नहीं । वह विषय हैसामान्यविशेषरूप अर्थ । प्रत्येक पदार्थ उभयरूप ( सामान्यविशेषरूप ) होता है । ऐसा नहीं है कि कोई अर्थ केवल विशेषरूप हो और कोई अर्थ केवल सामान्यरूप हो । ऐसा भी नहीं है कि विशेष परमार्थसत् हो और सामान्य संवृतिसत् हो । किन्तु दोनों ही परमार्थसत् और अर्थक्रियाकारी हैं । अतः प्रत्यक्ष और अनुमान का विषय पृथक् पृथक् बतलाना प्रमाणविरुद्ध है । प्रमाण से तो सामान्यविशेषात्मक अर्थ की ही सिद्धि होती है । यदि अनुमान का विषय केवल सामान्य है तो उससे अग्नि आदि विशेषों में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । अतः यह सुनिश्चित है कि केवल सामान्य का अथवा केवल विशेष का किसी ज्ञान में प्रतिभास नहीं होता है । किन्तु सामान्यविशेषात्मक अर्थ का ही प्रत्यक्षादि ज्ञान में प्रतिभास होता हैं । इस प्रकार प्रमेय द्वैविध्य की बात तर्कसंगत नहीं है ।
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बौद्धाभिमत प्रमाणद्वित्व की बात भी असंगत है । क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान में आगम आदि अन्य प्रमाणों का अन्तर्भाव संभव न होने के कारण बौद्धों के द्वारा अभिमत प्रमाणद्वित्व की संख्या सब प्रमाणवादियों को स्वीकार्य नहीं है । प्रत्यक्ष और अनुमान के अतिरिक्त आगम, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, उपमान, अर्थापत्ति आदि अन्य अनेक प्रमाण हैं । बौद्ध इन प्रमाणों का अन्तर्भाव किस प्रमाण में करेंगे ? इनका अन्तर्भाव न तो प्रत्यक्ष प्रमाण में हो सकता है और न अनुमान में । अत: प्रमाणद्वित्व की संख्या विघटित हो जाती है । इत्यादि प्रकार से विचार करने पर बौद्धों की प्रमेयद्वित्व से प्रमाणद्वित्व की मान्यता का निराकरण हो जाता है ।
सांख्यदर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम के भेद से तीन प्रमाण माने गये हैं । न्यायदर्शन तथा वैशेषिक दर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान आगम और उपमान के भेद से चार प्रमाण माने गये हैं । इन दार्शनिकों के द्वारा अभिमत प्रमाण संख्या में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क प्रमाणों का अन्तर्भाव संभव नहीं होने के कारण इनके द्वारा अभिमत तीन तथा चार प्रमाणों की संख्या भी विघटित हो जाती है ।
षट्प्रमाणवाद
पूर्वपक्ष
मीमांसक छह प्रमाण मानते हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं- प्रत्यक्ष,