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अथाक्रया
द्वितीय परिच्छेद : सूत्र २ प्रत्यक्ष और अनुमान । इनमें से प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण है और अनुमान का विषय सामान्यलक्षण है । मनुष्य, गौ आदि विशेष पदार्थों को स्वलक्षण कहते हैं । स्वलक्षण अर्थक्रिया करने में समर्थ होता है । इस कारण उसको परमार्थसत् कहा गया है । मनुष्यत्व, गोत्व आदि को सामान्यलक्षण कहते हैं । गोत्व आदि सामान्य अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं होता है । इस कारण इसे संवृतिसत्त् ( काल्पनिक ) कहते हैं । इस विषय में धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में लिखा है
अर्थक्रियासमर्थं यत् तदत्र परमार्थसत् ।
अन्यत् संवृतिसत् प्रोक्तं ते स्वसामान्यलक्षणे । सामान्य पदार्थ के विषय में बौद्धों की एक विशिष्ट कल्पना है । बौद्धदर्शन मनुष्य, गोत्व आदि को कोई वास्तविक पदार्थ नहीं मानता है । सामान्य एक कल्पनात्मक वस्तु है । जितने मनुष्य हैं वे सब अमनुष्य ( गौ आदि ) से व्यावृत्त हैं तथा सब एक सा कार्य करते हैं । अतः उनमें एक मनुष्यत्व सामान्य की कल्पना कर ली गई है । यही बात गोत्व आदि सामान्य के विषय में भी जानना चाहिए । सामान्य अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं है । गोत्व सामान्य से दुग्ध दोहन, भार वहन आदि अर्थक्रिया संभव नहीं है । इसलिए सामान्य को काल्पनिक माना गया है ।।
यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि यदि सामान्य कल्पनात्मक एवं मिथ्या है तो उसको पदार्थ क्यों माना गया है तथा सामान्य को विषय करने वाले अनुमान को प्रमाण क्यों माना गया है ? इसका उत्तर बौद्धों ने इस प्रकार दिया है-यद्यपि सामान्य मिथ्या है किन्तु वह स्वलक्षण की प्राप्ति में सहायक होता है । अतः उसको पदार्थ मानना आवश्यक है । यही बात अनुमान को प्रमाण मानने के विषय में भी है । स्वलक्षणरूप वस्तु की प्राप्ति में सहायक होने के कारण अनुमान को प्रमाण माना गया है । इस प्रकार बौद्धों ने यह सिद्ध किया है कि दो प्रमेयों के होने के कारण प्रमाण भी दो हैं । उत्तरपक्ष
· बौद्धों की उक्त मान्यता तर्कसंगत नहीं है । प्रमेयद्वैविध्य को मानकर प्रमाण द्वैविध्य मानना ठीक नहीं है । ऐसा नहीं है कि प्रत्येक प्रमाण का विषय दूसरे प्रमाणों से पृथक् होता हो । सामान्यरूप से प्रत्येक प्रमाण का