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द्वितीय परिच्छेद : सूत्र १
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उत्तरपक्ष-.
चार्वाक का उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं है । प्रत्यक्ष को अगौण कहना और अनुमान को गौण मानना सर्वथा गलत है । यहाँ विचारणीय यह है कि चार्वाक ने अनुमान को गौण क्यों माना है । क्या गौण अर्थ को विषय करने के कारण अथवा प्रत्यक्षपूर्वक होने के कारण अनुमान को गौण माना गया है । अनुमान के विषय को गौण मानना ठीक नहीं है । क्योंकि प्रत्यक्ष, अनुमान आदि सब प्रमाणों का विषय सामान्य-विशेषरूप अर्थ है । अतः सब प्रमाणों का विषय अगौण ही है, गौण विषय तो कोई भी नहीं है । प्रत्यक्षपूर्वक होने से भी अनुमान को गौण नहीं कह सकते हैं । अन्यथा कहीं अनुमानपूर्वक होने वाले प्रत्यक्ष में भी गौणता का प्रसंग प्राप्त होगा । प्रत्यक्ष को अर्थ का निश्चायक मानना और अनुमान को अर्थ का निश्चायक नहीं मानना भी गलत है । जिस प्रकार प्रत्यक्ष अपने विषय का निश्चायक होता है । उसी प्रकार अनुमान भी अपने विषय का निश्चायक होता है । यदि कहीं अनुमान के विषय में व्यभिचार देखा जाता है तो कहीं प्रत्यक्ष के विषय में भी तो व्यभिचार पाया जाता है । इतने मात्र से सब प्रत्यक्ष और सब अनुमान अप्रमाण नहीं हो सकते हैं । चार्वाक ने कहा है कि अनुमान व्याप्तिग्रहणपूर्वक होता है और व्याप्ति का ग्रहण न प्रत्यक्ष से होता है और न अनुमान से । इस विषय में हमारा कहना यह है कि व्याप्ति का ग्राहक तर्क नामक एक पृथक् प्रमाण है । तथा तर्क के द्वारा व्याप्ति का ग्रहण हो जाने पर अनुमान प्रमाण के उत्पन्न होने में कोई बाधा नहीं है । प्रत्यक्ष में प्रामाण्य अगौणत्व के कारण न होकर अविसंवादकत्व के कारण होता है । जिस प्रकार प्रत्यक्ष अपने विषय में अविसंवादक होता है और · अविसंवादक होने से वह प्रमाण है, उसी प्रकार अनुमान भी अपने विषय में अविसंवादक होने के कारण प्रमाण है।
बौद्धों ने चार्वाक के लिए अनुमान प्रमाण की सिद्धि जिन प्रबल युक्तियों से की है वे युक्तियाँ यहाँ भी द्रष्टव्य हैं
प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः।
प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ॥ . अर्थात् प्रमाण और अप्रमाण की सामान्य व्यवस्था होने से, पर की बुद्धि