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द्वितीय परिच्छेद इस परिच्छेद में प्रत्यक्ष प्रमाण का वर्णन किया गया है । प्रथम परिच्छेद में प्रमाण सामान्य का लक्षण बतलाया गया है । अब प्रमाण विशेष का लक्षण बतलाने के लिए पहले प्रमाण के भेद बतलाते हैं
तवेधा ॥१॥ . स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानरूप प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है । प्रमाणों के अन्य भेद और प्रभेदों का इनमें अन्तर्भाव हो जाता है । तथा अन्य वादियों द्वारा अभिमत एक, दो, तीन आदि प्रमाणों में उनका अन्तर्भाव नहीं हो पाता है । जो लोग केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं उनके यहाँ प्रत्यक्ष में अनुमान आदि प्रमाणों का अन्तर्भाव संभव नहीं है ।
प्रत्यक्षकप्रमाणवाद पूर्वपक्ष
चार्वाक मत में केवल प्रत्यक्ष प्रमाण का ही अस्तित्व स्वीकार किया गया है । उन्होंने अनुमान आदि अन्य किसी प्रमाण को नहीं माना है । उनका कथन है कि अर्थ का निश्चायक होने से प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है । जो ज्ञान अर्थ का निश्चायक होता है उसे प्रमाण माना जाता है । अनुमान से अर्थ का निश्चय नहीं होता है । अतः वह प्रमाण नहीं है । एक बात यह भी है कि अनुमान व्याप्तिग्रहण पूर्वक होता है और व्याप्ति का ग्रहण प्रत्यक्ष से संभव नहीं है । क्योंकि प्रत्यक्ष से इन्द्रिय सम्बद्ध और सन्निहित वस्तु का ही ग्रहण होता है । इस कारण वह अखिल देश और कालवर्ती साध्य-साधनों में व्याप्ति का ग्रहण नहीं कर सकता है । अनुमान से व्याप्ति का ग्रहण मानने पर उस अनुमान में अन्य अनुमान से व्याप्ति ग्रहण मानना पड़ेगा । अन्य अनुमान में भी उससे भिन्न अनुमान से व्याप्ति ग्रहण होगा । इस प्रकार अनवस्थादोष का प्रसंग प्राप्त होता है । अतः अगौण ( मुख्य ) होने से प्रत्यक्ष प्रमाण है और गौण होने से अनुमान अप्रमाण है । इस प्रकार चार्वाक ने प्रत्यक्ष में प्रमाणता और अनुमान में अप्रमाणता सिद्ध की है।