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________________ ३५ प्रथम परिच्छेद : सूत्र १३ जाय अथवा चक्षु इन्द्रिय में कामलादि दोष का ज्ञान हो जाय तो वह ज्ञान अप्रमाण मान लिया जाता है । मीमांसक का उक्त मत भी समीचीन नहीं है । क्योंकि इसके विपरीत हम ऐसा भी कह सकते हैं कि पहले सब ज्ञान अप्रमाणरूप ही उत्पन्न होते हैं । बाद में वहाँ बाधा रहित ज्ञान और इन्द्रिय में दोषाभाव का ज्ञान होने पर वह ज्ञान प्रमाण मान लिया जाता है । निष्कर्ष यह है कि न तो सब ज्ञान प्रमाणरूप उत्पन्न होते हैं और न अप्रमाणरूप उत्पन्न होते हैं, किन्तु कुछ ज्ञान प्रमाणरूप उत्पन्न होते हैं और कुछ ज्ञान अप्रमाणरूप उत्पन्न होते हैं । तथा ज्ञान की प्रमाणता का निर्णय कहीं स्वतः होता है और कहीं परत: होता है । .प्रथम परिच्छेद समाप्त.
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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