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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन :
स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । ऐसा प्रमाण का निर्दोष लक्षण सिद्ध होता है ।
अब यहाँ विचारणीय बात यह है कि प्रमाण के प्रामाण्य का ज्ञान कैसे होता है ? किसी को जलज्ञान हुआ कि वहाँ जल है, यह जलज्ञान सत्य है या असत्य, इसकी जानकारी कैसे होती है ? जलज्ञान सत्य है इस बात के ज्ञान का नाम प्रमाण का प्रामाण्य ( संवादकता ) है । प्रमाण के प्रामाण्य का तात्पर्य यह है कि प्रमाण ने जैसा अर्थ जाना है उसे वैसा ही होना चाहिए । प्रमाण के प्रामाण्य का ज्ञान कहीं स्वतः और कहीं परतः होता है । इसी बात को यहाँ बतलाया जा रहा है ।
प्रामाण्यविचार तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ॥१३॥ स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकज्ञानरूप प्रमाण का प्रामाण्य अभ्यासदशा में स्वतः और अनभ्यासदशा में परतः जाना जाता है । हम जिस स्थान पर प्रतिदिन जल देखते हैं वहाँ जलज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय स्वतः हो जाता है । और अपरिचित स्थान में जलज्ञान होने पर उसके प्रामाण्य का निश्चय परतः होता है । इन सब बातों का स्पष्टीकरण आगे किया जा रहा है ।
यहाँ प्रमाण के प्रामाण्य का विचार तीन बातों को लेकर किया गया है-(१) उत्पत्ति में प्रामाण्य (२) ज्ञप्ति में प्रामाण्य और (३) प्रवृत्तिरूप स्वकार्य में प्रामाण्य । अर्थात् प्रमाण की उत्पत्ति स्वतः होती है या परतः । प्रामाण्य की ज्ञप्ति स्वतः होती है या परतः । तथा प्रमाण का प्रवृत्तिरूप स्वकार्य स्वतः होता है या परतः ।
मीमांसक सब प्रमाणों का प्रामाण्य स्वतः मानते हैं । इस विषय में उन्होंने कहा है
. स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् ।
नहि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते ॥ अर्थात् सब प्रमाणों का प्रमाण्य स्वतः होता है, ऐसा जानना चाहिए । क्योंकि जो शक्ति स्वयं असत् है उसे अन्य कोई उत्पन्न नहीं कर सकता है ।
यहाँ सर्वप्रथम उत्पत्ति में प्रामाण्य का विचार किया जा रहा है । यह