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प्रथम परिच्छेद: सूत्र ११, १२
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जान सकता है । काटने में और जानने में बहुत अन्तर है । उत्पत्तिरूप क्रिया, ज्ञप्तिरूप क्रिया इत्यादि के भेद से क्रिया कई प्रकार की होती है । ज्ञान में उत्पत्तिरूप क्रिया का विरोध अवश्य पाया जाता है । हम यह नहीं कहते हैं कि ज्ञान स्वयं अपने से उत्पन्न होता है । हमारा तो कहना है कि ज्ञान अपने कारणों से उत्पन्न होता है । अतः ज्ञान में उत्पत्तिरूप क्रिया का विरोध होने पर भी ज्ञप्तिरूप क्रिया का विरोध नहीं है । ज्ञप्ति तो ज्ञान का स्वरूप है और स्वरूप के साथ स्वरूपवान् का विरोध कैसे संभव हो सकता है । अन्यथा दीपक में भी स्वप्रकाशन का विरोध मानना पड़ेगा । इसलिए अपने कारणों से उत्पन्न ज्ञान स्वपरप्रकाशक ही उत्पन्न होता है । इस प्रकार यह अच्छी तरह से सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक ज्ञान स्वसंवेद्य ही होता है, ज्ञानान्तरसंवेद्य नहीं ।
इसी बात को बतलाने के लिए आचार्य आगे का सूत्र कहते हैंको वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् ॥ ११ ॥
ऐसा कौनसा लौकिक अथवा परीक्षक पुरुष है जो प्रमाण से प्रतिभासित अर्थ को प्रत्यक्ष मानता हुआ प्रमाण को ही प्रत्यक्ष न माने ! अर्थात् ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है । जो परीक्षक और विवेकी पुरुष है वह तो प्रमाण को प्रत्यक्ष मानता ही है, किन्तु जो गोपाल आदि लौकिक पुरुष है वह भी प्रमाण को प्रत्यक्ष ही मानेगा । क्योंकि उसे ऐसी ही प्रतीति होती
| जब प्रमाण से प्रतिभासित अर्थ में प्रत्यक्षत्व पाया जाता है तो उस प्रमाण में भी प्रत्यक्षत्वं होना ही चाहिए । इसी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्त देते हैं
प्रदीपवत् ॥ १२॥
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दीपक की तरह । जिस प्रकार दीपक स्वपरप्रकाशक होता है । दीपक में स्वप्रकाशता के बिना अर्थप्रकाशकता नहीं बन सकती है । दीपक स्वप्रकाशक होकर ही अर्थप्रकाशक होता है । इसी प्रकार प्रमाण में भी स्वप्रत्यक्षता के बिना उसके द्वारा प्रतिभासित अर्थ में प्रत्यक्षता नहीं बन सकती है । तात्पर्य यह है कि प्रमाण और दीपक दोनों स्वपरप्रकाशक हैं I इस प्रकार प्रत्यक्षादि सब प्रमाणों में रहने वाला तथा सन्निकर्षादि समस्त अप्रमाणों से व्यावृत्त