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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
द्वितीय ज्ञान से और द्वितीय ज्ञान का प्रत्यक्ष तृतीय ज्ञान से होता है । ऐसी मान्यता का नाम है - ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद । नैयायिक अपने इस मत को अनुमान प्रमाण से सिद्ध करते हैं । वह अनुमान इस प्रकार हैज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यं प्रमेयत्वात् पटादिवत् ।
अर्थात् ज्ञान ज्ञानान्तर से वेद्य होता है, प्रमेय होने से, पटादि की तरह । स्वात्मा में क्रिया का विरोध होने से भी ज्ञान का संवेदन स्वतः नहीं हो सकता है । सुतीक्ष्ण तलवार स्वयं अपने को नहीं काट सकती है, सुशिक्षित नट स्वयं अपने कन्धे पर नहीं चढ़ सकता है । इसी प्रकार ज्ञान भी स्वयं अपने को नहीं जान सकता है । ये सब अपने में क्रियाविरोध के उदाहरण हैं । काटने रूप क्रिया स्वयं अपने में न होकर दूसरी वस्तु में ही होती है, नट द्वारा चढ़ने रूप क्रिया स्वयं के कन्धे पर न होकर दूसरे पदार्थ में ही होती है । इसी प्रकार ज्ञान के द्वारा जानने रूपं क्रिया भी स्वयं में न होकर घटादि पदार्थों में ही होती है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि ज्ञान का संवेदन स्वतः न होकर अन्य ज्ञान से ही होता है ।
उत्तरपक्ष
नैयायिकों का उक्त मत समीचीन नहीं है । यदि प्रथम ज्ञान का संवेदन द्वितीय ज्ञान से और द्वितीय ज्ञान का संवेदन तृतीय ज्ञान से माना जायेगा तो इस प्रकार की प्रक्रिया का कहीं विराम नहीं होने के कारण अनवस्थादोष प्राप्त होगा । इस दोष को दूर करने के लिए ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानपरम्परा में यदि किसी ज्ञान को स्वतः वेद्य मान लिया जाता है तो प्रथम ज्ञान को ही स्वतः वेद्य मानने में क्या हानि है । पहले बतलाया जा चुका है कि सुख का संवेदन स्वत: होता है । इसी प्रकार ज्ञान का संवेदन भी स्वतः ही होता है । ज्ञान में प्रमाणत्व और प्रमेयत्व - ये दोनों धर्म एक साथ रह सकते हैं । इसमें कोई विरोध नहीं है । ज्ञान 'जानता है' इस अपेक्षा से वह प्रमाण है और 'जाना जाता है' इस अपेक्षा से वह प्रमेय है । नैयायिक महेश्वर के ज्ञान को स्वतः ही वेद्य मानते हैं, परत: नहीं । इसी प्रकार सब ज्ञानों को भी वैसा ही मानना चाहिए । स्वात्मा में क्रिया का विरोध बतलाना भी ठीक नहीं है । यह ठीक है कि कोई भी तलवार अपने को नहीं काट सकती । किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि कोई ज्ञान स्वयं को नहीं