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प्रथम परिच्छेद: सूत्र १०
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नैयायिक-वैशिषिकों की मान्यता है कि आत्मा के गुण सुखादि का प्रत्यक्ष तो होता है, किन्तु वह स्वतः न होकर दूसरे ज्ञान से होता है । क्योंकि स्वात्मा में क्रिया का विरोध पाया जाता है । कोई भी क्रिया स्वयं अपने में नहीं होती है ।
नैयायिक- विशेषिक के इस कथन में भी प्रत्यक्ष से विरोध आता है । ऐसा नहीं है कि घटादि की तरह सुखादि पहले अज्ञातस्वरूपवाला उत्पन्न होता हो, इसके बाद उसका इन्द्रिय से सम्बन्ध होता हो और इन्द्रिय सम्बन्ध के द्वारा करणरूप ज्ञान उत्पन्न होता हो और तदनन्तर उस ज्ञान के द्वारा सुखादि का ग्रहण होता हो । किन्तु प्रथम बार में ही इष्ट और अनिष्ट विषय के अनुभव के अनन्तर स्वप्रकाशरूप सुखादि की प्रतीति हो जाती है । यदि आत्मा से सुखादि में अत्यन्त भेद हो और ज्ञानान्तर ( दूसरे ज्ञान) से सुखादि का ग्रहण होता तो उनमें आत्मीय और परकीय का भेद नहीं बन सकेगा । ये सुखादि आत्मीय हैं और ये परकीय हैं, ऐसा कथन किस आधार पर होगा । तथ्य तो यह है कि ज्ञान से भिन्न सुखादि का प्रतिभास नहीं होता है, किन्तु सुखाकार परिणत ज्ञानविशेष ही सुख है और वह प्रत्यक्ष है । यह भी एक तथ्य है कि ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य -- ये सब आत्मा के गुण हैं और आत्मा की तरह इन सबका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है । आत्मा और आत्मा के समस्त गुणों का स्वतः ही प्रतिभास होता है, अन्य किसी ज्ञानान्तर से नहीं । इस प्रकार आत्मा में तथा उसके गुण सुखादि में प्रत्यक्षत्व की सिद्धि होती है । स्वात्मा में क्रिया का जो विरोध बतलाया गया है वह भी सर्वथा ठीक नहीं हैं । क्योंकि उत्पत्तिरूप क्रिया में तो विरोध बतलाना ठीक है । किसी पदार्थ की उत्पत्ति स्वतः नहीं होती है, किन्तु पर से ही होती है । इसके विपरीत ज्ञप्तिरूप क्रिया के समय स्वात्मा में क्रिया के विरोध की कोई बात नहीं है । आत्मा, ज्ञान, सुख आदि ज्ञप्तिरूप क्रिया स्वात्मा में ही होती है और स्वतः होती है, परतः नहीं । ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद
पूर्वपक्ष
नैयायिक - वैशाषिकों का मत है कि ज्ञान का प्रत्यक्ष होता है, किन्तु वह प्रत्यक्ष स्वतः न होकर अन्य ज्ञान से होता है । प्रथम ज्ञान का प्रत्यक्ष