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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
की सिद्धि संभव नहीं है । यतः ज्ञान अर्थ की ज्ञप्ति ( ज्ञान ) में साधकतम. ( करण ) होता है अतः उसको स्वव्यवसायात्मक मानना आवश्यक है । इसलिए परोक्षतैकान्तवाद के आग्रह को छोड़कर ज्ञान को अर्थव्यवसायात्मक की तरह स्वव्यवसायात्मक भी मानना चाहिए । उपर्युक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि जिस प्रकार अर्थ का प्रत्यक्ष होता है उसी प्रकार कर्ता ( आत्मा ) करण ( ज्ञान ) और क्रिया ( प्रमिति ) का भी प्रत्यक्ष होता है । .. यहाँ कोई शंका करता है कि मैं ज्ञान से घट को जानता हूँ, ऐसी प्रतीति केवल शब्दजन्य प्रतीति है । इससे प्रमाता आदि में प्रत्यक्षता की सिद्धि नहीं हो सकती है । इस शंका के समाधान के लिए आचार्य आगे का सूत्र कहते हैं
शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ॥१०॥ जिस प्रकार घट शब्द के उच्चारण के बिना भी घट के स्वरूप का प्रतिभास होता है, उसी प्रकार प्रमाता आदि शब्दों का उच्चारण नहीं करने पर भी प्रमाता आदि के स्वरूप का प्रतिभास होता है, अत: यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रमाता आदि की प्रतीति केवल शब्दजन्य है और प्रमाता आदि का कोई वास्तविक आलम्बन नहीं है । प्रमाता आदि शब्दों का उच्चारण तो प्रमाणसिद्ध प्रमाता आदि के स्वरूप को बतलाने के लिए किया जाता है।
सुखादि में प्रत्यक्षत्व की सिद्धि यहाँ मीमांसक का कथन है कि जिस प्रकार सुखादिसंवेदन का प्रत्यक्ष न होने पर भी सुखादि का प्रतिभास हो जाता है उसी प्रकार अर्थ के संवेदन का प्रत्यक्ष न होने पर भी अर्थका प्रतिभास हो जाता है ।
मीमांसक का उक्त कथन अविचारित रमणीय है । ऐसा नहीं है कि ज्ञान से सुखादि भिन्न हैं । वास्तव में आह्लादनाकार परिणत ज्ञानविशेष का नाम ही सुख है । और यह बात अनुभव सिद्ध है कि इस प्रकार के सुखादि का प्रत्यक्ष होता है । यदि सुखादि अप्रत्यक्ष हों और अत्यन्त परोक्ष ज्ञान के द्वारा ग्राह्य हों तो सुख के द्वारा आत्मा का अनुग्रह और दु:ख के द्वारा आत्मा का उपघात ( अहित ) संभव नहीं है । अतः इसमें सन्देह नहीं है कि सुखादि का प्रत्यक्ष होता है।