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प्रथम परिच्छेद : सूत्र ८, ९ . .कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः ॥९॥
कर्म की तरह कर्ता, करण और क्रिया की प्रतीति होती है । घट कर्म है, 'अहम्' ( मैं ) कर्ता है, ज्ञान करण है और जानता हूँ यह क्रिया है ।
इस सूत्र का तात्पर्य यही है कि केवल कर्म ( घटादि ) की ही प्रतीति नहीं होती है, किन्तु कर्ता, करण और क्रिया ( प्रमिति ) की भी प्रतीति होती है । यहाँ घट को कर्म कहने का तात्पर्य यह है कि घट ज्ञान का विषय या प्रमेय है । व्याकरण के अनुसार कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है । घटम्' यहाँ द्वितीया विभक्ति है । जब कोई क्रिया होती है तो उसके लिए कर्ता, कर्म और करण इन तीन की आवश्यकता होती है । जैसे देवदत्त कुठार से लकड़ी को काटता है । यहाँ काटना क्रिया है, देवदत्त कर्ता है, कुठार करण है और लकड़ी कर्म है । उसी प्रकार मैं ज्ञान से घट को जानता हूँ, यहाँ 'मैं' कर्ता है, घट कर्म है, ज्ञान करण है और जानता हूँ क्रिया है । क्रिया का जो प्रमुख कारण होता है उसे करण कहते हैं । जैसे जाननेरूप क्रिया का प्रमुख कारण ज्ञान है, काटनेरूप क्रिया का प्रमुख कारण कुठार है । प्रमुख कारण को ही साधकतम अथवा करण कहते हैं ।
स्वसंवेदनज्ञानवाद यहाँ विचारणीय बात यह है कि जिस प्रकार ज्ञान घट का प्रत्यक्ष करता है, क्या उसी प्रकार वह अपना भी प्रत्यक्ष करता है ? ज्ञान को अपना संवेदन होता है या नहीं । इस विषय में परोक्षज्ञानवादी मीमांसक का मत है कि ज्ञान अपना प्रत्यक्ष नहीं करता है । उनके अनुसार ज्ञान परोक्ष है और वह अपना संवेदन नहीं करता है । इस मत के विपरीत जैनदर्शन का मत है कि जिस प्रकार ज्ञान घटादि प्रमेय का प्रत्यक्ष करता है, उसी प्रकार वह अपना भी प्रत्यक्ष करता है । मीमांसक मानते हैं कि ज्ञान अर्थ को तो जानता है किन्तु स्वयं अपने को नहीं जानता है । इस विषय में जैनदर्शन का कहना है कि यदि ज्ञान स्वयं को न जाने तो वह अर्थ को भी नहीं जान सकता है । यदि ज्ञान अप्रत्यक्ष है तो वह अर्थ का प्रत्यक्ष कैसे कर सकता है । अर्थ की तरह ज्ञान में भी प्रत्यक्षता प्रतीति सिद्ध है । जो व्यक्ति ज्ञान को सर्वथा परोक्ष मानता है वह ज्ञान के अस्तित्व की सिद्धि • कैसे करेगा । अर्थात् परोक्षज्ञानवादी मीमांसक के मत में ज्ञान के सद्भाव