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________________ २६ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन प्रत्यक्ष नहीं होता है, जैसे चैतन्य । अतः यह निश्चित है कि भूत और चैतन्य विजातीय हैं । और विजातीय होने के कारण भूत चैतन्य के उपादान कारण नहीं हो सकते हैं । किसी भी पदार्थ का उपादान कारण सजातीय ही होता है । जैसे कि मिट्टीरूप द्रव्य घट का उपादान कारण होता है । अतः भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति या अभिव्यक्ति कदापि नहीं हो सकती है। चार्वाक का यह कहना भी ठीक नहीं है कि आत्मा की सिद्धि किसी प्रमाण से नहीं होती है । मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, इत्यादिरूप अहंप्रत्यय ( मैं का ज्ञान ) के द्वारा आत्मा का ही ग्रहण होता है । और जो अहंप्रत्ययजन्य ज्ञान है वह प्रत्यक्ष है । अतः हम कह सकते हैं कि आत्मा की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण से होती है । इसी प्रकार अनुमान प्रमाण से भी आत्मा की सिद्धि होती है । आत्मसाधक अनुमान इस प्रकार है-घटादि पदार्थों का ज्ञान कहीं आश्रित है, गुण होने से, रूपादि की तरह । और जो ज्ञानगुण का आश्रय है वही आत्मा है । ज्ञान को शरीर, इन्द्रिय, मन और विषय का गुण नहीं माना जा सकता है । चैतन्य शरीर का गुण नहीं है, क्योंकि मृत्यु की 'अवस्था में शरीर के विद्यमान रहने पर भी चैतन्य की निवृत्ति हो जाती है । चैतन्य इन्द्रियों का भी गुण नहीं है । यदि चैतन्य इन्द्रियों का गुण होता तो किसी इन्द्रिय के विनष्ट हो जाने पर चैतन्य की प्रतीति नहीं होनी चाहिए । क्योंकि गुणी के नष्ट हो जाने पर गुण की प्रतीति नहीं होती है । इसी प्रकार चैतन्य मन और विषय का भी गुण सिद्ध नहीं हो सकता है । इस प्रकार युक्तिपूर्वक विचार करने पर भूतचैतन्यवाद विज्ञजनों द्वारा उपेक्षणीय ही ठहरता है। प्रमेय की तरह प्रमाता, प्रमाण और प्रमिति का भी प्रत्यक्ष होता है, इस बात को आगे के सूत्र में बतलाते हैं घटमहमात्मना वेद्मि ॥८॥ मैं घट को आत्मा ( ज्ञान ) से जानता हूँ । यहाँ घट प्रमेय है, 'अहम्' ( मैं ) प्रमाता है, ज्ञान प्रमाण है और जानता हूँ यह प्रमिति है । कहने का तात्पर्य यह है कि प्रमाण के द्वारा केवल प्रमेय की ही प्रतीति नहीं होती है, किन्तु प्रमाता, प्रमाण और प्रमिति की भी प्रतीति होती है । इसी बात को बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते है :- ..
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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