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प्रथम परिच्छेद : सूत्र ७ तरह ज्ञान इन्द्रिय से भी तो उत्पन्न होता है, फिर वह इन्द्रियाकार क्यों नहीं होता है । बौद्धों का मत है कि घटाकार होने के कारण घटज्ञान घट को जानता है । इस विषय में जैनाचार्यों का मत यह है कि घटज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने के कारण घटज्ञान घट को जानता है । इत्यादि प्रकार से विचार करने पर बौद्धों का साकारज्ञानवाद निराकृत हो जाता है ।
भूतचैतन्यवाद पूर्वपक्ष___ चार्वाक मत में शरीर से पृथक् कोई आत्मा नहीं है । पृथिवी, जल, अग्नि और वायु-इन चार भूतों से शरीर की उत्पत्ति होती है । इसी कारण चैतन्य आत्मा का धर्म या गुण न होकर शरीर का धर्म है । जिस प्रकार धातकी, गुड़, महुआ आदि मादक द्रव्यों के संमिश्रण से मदशक्ति की अभिव्यक्ति होती है, उसी प्रकार पृथिवी आदि भूतों के द्वारा उत्पन्न शरीररूप अवस्थाविशेष में चैतन्य की अभिव्यक्ति या उत्पत्ति होती है । इसी का नाम भूतचैतन्यवाद है । चार्वाक मत में आत्मा, परलोक, मोक्ष आदि कुछ भी नहीं है । मृत्युपर्यन्त वर्तमान जीवन ही सब कुछ है । जिस प्रकार भी संभव हो सुखपूर्वक जीवन बिताना ही चार्वाक का लक्ष्य है । कहा भी है-यावजीवेत् सुखं जीवेत् । उत्तरपक्ष
- चार्वाक का उक्त भूतचैतन्यवाद प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है । चैतन्य या ज्ञान को भूतों का परिणमन मानने पर दर्पणादि की तरह ज्ञान का बाह्येन्द्रिय के द्वारा प्रत्यक्ष होना चाहिए । किन्तु ऐसा होता नहीं है । भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति संभव भी नहीं है । पृथिवी आदि भूत चैतन्य की उत्पत्ति में उपादान कारण नहीं हो सकते हैं । क्योंकि दोनों के पृथक् पृथक् असाधारण लक्षण होने के कारण दोनों विजातीय हैं । चैतन्य का असाधारण लक्षण है-ज्ञानदर्शनरूप उपयोग तथा पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन भूतों का क्रमशः असाधारण लक्षण है-धारण, द्रव, उष्णता और ईरण - ( बहना ) । पृथिवी आदि चार भूत ज्ञानदर्शनरूप उपयोग लक्षण वाले - नहीं हैं । क्योंकि वे अनेक लोगों के द्वारा प्रत्यक्ष होते हैं । और जिसमें ज्ञानदर्शनोपयोगरूप लक्षण पाया जाता है उसका अनेक लोगों के द्वारा