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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन ...
तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ॥ अर्थात् यदि ज्ञान में अर्थरूपता न हो तो ज्ञान का अर्थ के साथ संयोजन नहीं हो सकता है । अर्थरूपता के कारण ही प्रमेय की अधिगति ( प्रमिति ) होती है । इसलिए मेयरूपता ( अर्थाकारता ) प्रमाण है । बौद्धों ने अर्थसारूप्य को प्रमाण माना है और अर्थ की अधिगति को फल माना है । यही बौद्धों का साकारज्ञानवाद है । उत्तरपक्ष
जैन दार्शनिक कहते हैं कि बौद्धौं का उक्त प्रकार का साकारज्ञानवाद प्रमाणसंगत नहीं है । हम देखते हैं कि घटादि के आकार से रहित ज्ञान ही घटादि अर्थ का ग्राहक होता है । ज्ञान दर्पणादि की तरह अर्थ के आकार को धारण नहीं करता है । यदि ज्ञान अर्थ के आकार को धारण करता हो तो पदार्थों में दूर, निकट आदि के व्यवहार का अभाव हो जायेगा । किन्तु वह पर्वत दूर है, मेरा हाथ निकट है, इत्यादि अबाधित व्यवहार देखा जाता है । ऐसा व्यवहार ज्ञान के साकार मानने पर नहीं बन सकता है । घट से उत्पन्न हुआ ज्ञान घट के आकार को धारण करता है ऐसा मानने वालों से हम कह सकते हैं कि फिर तो उसे घट की जड़ता को भी धारण करना चाहिए । किन्तु क्या ज्ञान घट की जड़ता को धारण करता है ? ऐसा मानना तो स्वयं बौद्धों को भी अनिष्ट है । ज्ञान को प्रमाण मानने के कारण ही उसमें अर्थाकारता का अभाव सिद्ध होता है । ज्ञान को अर्थाकार मानने पर तो वह घटादि की तरह प्रमेय ही कहलायेगा और उसमें प्रमाणत्व का व्याघात हो जायेगा । ज्ञान में प्रमेयरूपता और प्रमाणरूपता दोनों बातें नहीं बन सकती हैं । क्योंकि प्रमाण को अन्तर्मुखाकार होने से और प्रमेय को बहिर्मुखाकार होने से दोनों में भेद स्पष्ट है। ___बौद्धों का यह कथन भी ठीक नहीं है कि अर्थाकारता के बिना ज्ञान
का अर्थ के साथ संयोजन ( सम्बन्ध ) नहीं हो सकता है । क्योंकि ज्ञान में अर्थरूपता के कारण अर्थ के साथ संयोजन नहीं होता है, किन्तु स्वकारणों से उत्पन्न ज्ञान अर्थसम्बद्ध ही उत्पन्न होता है । ऐसा नहीं है कि पहले ज्ञान उत्पन्न हो और बाद में उसका अर्थ के साथ संयोजन हो । बौद्ध ऐसा मानते हैं कि अर्थ से उत्पन्न ज्ञान अर्थाकार होता है । यहाँ प्रश्न यह है कि अर्थ की