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प्रथम परिच्छेद : सूत्र ६, ७
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पर्याय है । हम कह सकते हैं कि द्रष्टा होने के कारण आत्मा ज्ञानपर्याय से युक्त है । जो ज्ञानपर्याय से युक्त नहीं होता है वह घट की तरह द्रष्टा नहीं हो सकता है । यतः आत्मा द्रष्टा है अतः वह ज्ञानपर्यायवान् है । प्रकृति को ज्ञान सम्पन्न मानने पर प्रकृति ही द्रष्टा हो जायेगी । तब आत्मा की कल्पना करना व्यर्थ ही है । जिस प्रकार आत्मा में 'मैं चेतन हूँ' ऐसा अनुभव होता है, उसी प्रकार 'मैं ज्ञाता हूँ' ऐसा अनुभव भी होता है । और ऐसा अनुभव होने से आत्मा में ज्ञानस्वभाव की सिद्धि होती है । ज्ञान के संसर्ग से आत्मा को ज्ञाता मानने पर चैतन्य के संसर्ग से आत्मा को चेतन मानना पड़ेगा, स्वभाव से नहीं । वास्तव में चैतन्य, बुद्धि, ज्ञान और अध्यवसाय-ये शब्द पर्यायवाची हैं । तथा आत्मा में चैतन्य की तरह ज्ञान भी स्वभाव से ही पाया जाता है । सांख्य मत में एक दोष यह भी है कि यदि ज्ञान अचेतन है तो वह विषय का व्यवस्थापक नहीं हो सकता है । अचेतन ज्ञान में विषयाकारता मानकर भी विषयव्यवस्थापकत्व नहीं बन सकता है । अन्यथा दर्पण में भी घटादि पदार्थों के आकाररूप विषयाकारता होने से ज्ञानरूपता का प्रसंग प्राप्त होगा । अमर्त होने के कारण ज्ञान में विषयाकारता भी नहीं बन सकती है । विषयाकारता तो मूर्त दर्पणआदि में ही देखी जाती है । इत्यादि प्रकार से विचार करने पर सांख्य का अचेतनज्ञानवाद निरस्त हो जाता है ।
साकारज्ञानवाद पूर्वपक्ष
बौद्ध ऐसा मानते हैं कि ज्ञान अर्थ से उत्पन्न होता है और अर्थाकार होता है । हमें जो घट का ज्ञान होता है वह घट से उत्पन्न होता है और घटाकार होता है । इसीप्रकार सब ज्ञानों के विषय में समझना चाहिए । घट ज्ञान को घटाकार होना आवश्यक है । घटज्ञान घट को ही क्यों जानता है, पट को क्यों नहीं जानता ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि घटाकार होने के
कारण ही घटज्ञान घट को जानता है, वह पटाकार नहीं है, अतः पट को . नहीं जानता है । ज्ञान में अर्थाकारता विषय की व्यवस्थापक होती है । इसी विषय में धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में कहा है
अर्थेन घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् ।