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________________ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . स्वव्यवसाय का स्वरूप - ज्ञान स्वव्यवसायात्मक होता है इस बात को आगे के सत्र में बतलाया जा रहा है। स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः ॥६॥ ज्ञान स्व का व्यवसाय ( निश्चय ) करता है । वह व्यवसाय किस रूप में होता है ? अपना व्यवसाय करने के समय ज्ञान का प्रतिभासन ( संवेदन ) अपने उन्मुखरूप से होता है । अर्थात् उस समय ज्ञान की दृष्टि अपनी ओर रहती है, बाहर की ओर नहीं । इसी बात को सिद्ध करने के लिए दृष्टान्त देते हैं अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥७॥ जिस प्रकार ज्ञान अर्थ के उन्मुख होकर अर्थ का व्यवसाय करता है उसी प्रकार ज्ञान अपने उन्मुख होकर अपना व्यवसाय करता है । तात्पर्य यह है कि ज्ञान स्व और अर्थ दोनों का व्यवसाय करता है । जब ज्ञान की दृष्टि अपनी ओर रहती है तब स्वव्यवसाय होता है और जब उसकी दृष्टि बाहर की ओर रहती है तब अर्थ का व्यवसाय होता है । स्वव्यवसाय स्वोन्मुख होता है और अर्थव्यवसाय अर्थोन्मुख होता है । अचेतनज्ञानवाद पूर्वपक्ष___ सांख्यदर्शन में ज्ञान को अचेतन माना गया है । इस दर्शन में मुख्यरूप से दो तत्त्व हैं-प्रकृति और पुरुष । इनमें से प्रकृति अचेतन है और पुरुष चेतन है । ज्ञान की उत्पत्ति प्रकृति से होती है । ज्ञान प्रकृति का धर्म या पर्याय है । इस कारण ज्ञान अचेतन है । पुरुष का स्वरूप चैतन्य है । सांख्य ज्ञान और चैतन्य में भेद मानते हैं और ज्ञान को पुरुष का धर्म न मानकर प्रकृति का धर्म मानते हैं । यही सांख्य का अचेतनज्ञानवाद है । सांख्य का कहना है कि अचेतन होने के कारण घट की तरह ज्ञान स्वव्यवसायात्मक नहीं होता है । ऐसा सांख्य का मत है ।। उत्तरपक्ष सांख्य का उक्त मत सर्वथा असंगत है । ज्ञान को प्रकृति की पर्याय मानना ठीक नहीं है । यर्थाथ में ज्ञान प्रकृति की पर्याय न होकर आत्मा की
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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