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प्रथम परिच्छेद : सूत्र ५
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उत्तरपक्ष
यह मत समीचीन नहीं है । जिस प्रकार विज्ञानाद्वैत की सिद्धि किसी प्रमाण से नहीं होती है उसी प्रकार चित्राद्वैत की सिद्धि भी किसी प्रमाण से नहीं होती है । प्रत्यक्ष से ऐसे किसी ज्ञान की प्रतीति नहीं होती है जो चित्राकार ( अनेकाकार ) हो । नील अर्थ और नील ज्ञान में पृथक्करण देखा ही जाता है । नील अर्थ बहिर्देश से सम्बन्ध रखता है और नील ज्ञान अन्तर्देश से सम्बन्धित है । जिस प्रकार चित्राद्वैतवादियों के यहाँ एक ज्ञान में युगपत् नीलादि अनेक आकार पाये जाते हैं, उसी प्रकार प्रमाता में क्रम से अनेक सुखादि आकार पाये जाने के कारण यह सिद्ध होता है कि कथंचित् अक्षणिक और नीलादि अनेक पदार्थों का व्यवस्थापक कोई प्रमाता है । इस प्रकार चित्राद्वैतवादियों का मत निरस्त हो जाता है ।
. शून्याद्वैतवाद पूर्वपक्ष___बौद्ध दार्शनिकों में एक मत माध्यमिकों का है । माध्यमिक मानते हैं कि इस विश्व में न तो बाह्य अर्थ घटपटादि की सत्ता है और न अन्तरंग अर्थ ज्ञान की सत्ता है । तथा सब प्रकार की सत्ता के अभाव का नाम है शून्याद्वैत । उनके अनुसार एक मात्र शून्य ही तत्त्व है, अन्य कुछ भी नहीं है । माध्यमिकों का यही शून्याद्वैतवाद है जो कल्पनामात्र है । उत्तरपक्ष___यहाँ माध्यमिकों से पूछा जा सकता है कि शून्याद्वैत की सिद्धि प्रमाण से होती है या प्रमाण के बिना । प्रथम पक्ष में शून्याद्वैत की सिद्धि कैसे संभव • होगी ? क्योंकि शून्यता के सद्भाव को बतलाने वाले प्रमाण का सद्भाव मान लिया गया है । तथा प्रमाण के सद्भाव में शून्याद्वैत का निषेध स्वयं हो जाता है । द्वितीय पक्ष में तो शून्यता की सिद्धि असंभव ही है । क्योंकि प्रमेय की सिद्धि प्रमाण के बिना नहीं हो सकती है । जब शून्यता का साधक कोई प्रमाण ही नहीं है तो शून्यता की सिद्धि कैसे होगी । हम देखते हैं कि सब
लोगों को बाह्य पदार्थ घटादि तथा अश्वादि का स्पष्ट प्रतिभास होता है । तब ... विचारशील लोग शून्याद्वैत को कैसे स्वीकार करेंगे । तात्पर्य यह है कि
शून्यता कोई वास्तविक तत्त्व न होकर मात्र काल्पनिक तत्त्व है ।