________________
प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
अभाव मानना पड़ेगा । अनुमान से भी विज्ञप्तिमात्र की सिद्धि संभव नहीं हैं । क्योंकि ज्ञानमात्र का साधक जो भी अनुमान होगा वह प्रत्यक्षबाधित होने के कारण अप्रमाण ही कहलायेगा । ____ इस प्रकार बाह्यार्थ के सद्भाव में कोई बाधक प्रमाण न होने से तथा उसके साधक प्रमाण के सद्भाव से बाह्यार्थ की सत्ता निर्विवाद सिद्ध होती है । विज्ञान से भिन्न बाह्यार्थ की सत्ता के बिना द्विचन्द्रदर्शन भी संभव नहीं है । चक्षु इन्द्रिय में दोष के कारण बाह्य में स्थित एक चन्द्र में जो द्विचन्द्र का ज्ञान हो जाता है वह बाह्यार्थ के सद्भाव में ही संभव है । विज्ञानाद्वैतवादी अर्थ और ज्ञान में सहोपलंभनियम की बात करते हैं । किन्तु उनमें सहोपलंभ असिद्ध है । ऐसा नहीं है कि सदा ही अर्थ और ज्ञान का उपलंभ एक साथ देखा जाता हो, क्योंकि बाह्य अर्थ के उपलंभ के बिना भी सखादि का संवेदन देखा जाता है । स्वरूप और कारण के भेद से भी अर्थ और ज्ञान में भेद सिद्ध होता है । विज्ञान ग्राहकस्वरूप है और नीलादि अर्थ ग्राह्यस्वरूप है । इसी प्रकार अर्थ और ज्ञान में कारणभेद सुप्रसिद्ध है । चक्षुरादि कारणों से ज्ञान उत्पन्न होता है और नीलादि अर्थ दूसरे कारणों से उत्पन्न होता है । यदि विज्ञानाद्वैत का साधक कोई प्रमाण है तो द्वैत का प्रसंग प्राप्त होगा । और यदि अद्वैत का साधक कोई प्रमाण नहीं है तो फिर विज्ञानाद्वैत के अस्तित्व की सिद्धि कैसे होगी ? क्योंकि प्रमेय की सिद्धि प्रमाण की सत्ता पर निर्भर है । प्रमाण के अभाव में प्रमेय की सिद्धि किसी प्रकार संभव नहीं है । इस प्रकार विचार करने पर विज्ञप्तिमात्र तत्त्व का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है ।
चित्राद्वैतवाद पूर्वपक्ष
विज्ञानाद्वैतवाद के अन्तर्गत एक मत चित्राद्वैवादियों का है । ये लोग ज्ञान में नील, पीत आदि अनेक आकार मानते हैं । इनका कहना है कि ज्ञान चित्र ( नाना ) प्रतिभासवाला होकर भी एक ही है, क्योंकि यह बाह्य चित्र से विलक्षण है । बाह्य अर्थ वस्त्रादि में नील, पीत आदि अनेक आकार होते हैं और हम इन आकारों को पृथक् पृथक् कर सकते हैं । किन्तु ज्ञान में जो अनेक आकार होते हैं उनका पृथक्करण नहीं किया जा सकता है । संक्षेप में यही चित्राद्वैतवादियों का मत है।