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प्रथम परिच्छेद : सूत्र ५
सत्ता नहीं है । यद्यपि ज्ञानमात्र तत्त्व ग्राह्य और ग्राहक के भेद से रहित है, फिर भी वह अनादिकालीन अविद्या के कारण ग्राह्य और ग्राहक के भेद को लिए हए प्रतिभासित होता है । वास्तव में तो वह विभागरहित है । इसी विषय में धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में कहा है
अविभागोऽपि बुद्ध्यात्मा विपर्यासितदर्शनैः ।
ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ॥ अर्थात् बुद्धि का स्वरूप अविभाग ( विभाग रहित ) है । किन्तु विपरीतज्ञानयुक्त पुरुषों के द्वारा उसमें ग्राह्य और ग्राहक के भेद की कल्पना कर ली जाती है । और भी देखिए- .
नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति तस्या नानुभवोऽपरः ।
ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशते ॥ अर्थात् बुद्धि के द्वारा अन्य कोई बाह्य अर्थ ग्राह्य नहीं है और उस बुद्धि का भी अन्य कोई ग्राहक नहीं है । वह बुद्धि ग्राह्य और ग्राहक के वैधुर्य ( अभाव ) के कारण स्वयं प्रकाशित होती है ।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बाह्यार्थ के अभाव में भी बाह्यार्थ का ज्ञान हो जाता है । जैसे तिमिररोग वाले पुरुष को दो चन्द्र के अभाव में भी द्विचन्द्र दर्शन हो जाता है । यथार्थ में ज्ञानाकार ही ज्ञेयाकाररूप से प्रतिभासित होता है । नील पदार्थ और नील पदार्थ का ज्ञान इन दोनों में सहोपलंभनियम पाया जाता है । अर्थात् दोनों ( अर्थ और अर्थ का ज्ञान ) साथ साथ रहते हैं । इस सहोपलंभनियम से नील और नीलबुद्धि में अभेद सिद्ध होता है । कहा भी है
- सहोपलंभनियमादभेदो नीलतद्धियोः । ___इस प्रकार विज्ञानाद्वैतवादी विज्ञप्तिमात्र तत्त्व की सिद्धि करते हैं । उत्तरपक्ष
विज्ञानाद्वैतवादियों का उक्त मत तर्कसंगत नहीं है । क्योंकि विज्ञानमात्र तत्त्व का साधक कोई प्रमाण नहीं है । प्रत्यक्ष से तो विज्ञानमात्र तत्त्व की सिद्धि नहीं होती है । उसके द्वारा तो ज्ञान की तरह अश्व, गज, घट, पट आदि बाह्य पदार्थों की भी सिद्धि होती है । प्रत्यक्ष में प्रतिभासमान होने पर भी यदि बाह्य अर्थ का अभाव माना जायेगा तो विज्ञप्तिमात्र तत्त्व का भी