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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . वही ब्रह्म सब प्राणियों की उत्पत्ति का हेतु होता है । ऐसा ब्रह्माद्वैतवादियों का मत है। उत्तरपक्ष
वेदान्तियों का उक्त मत युक्तिसंगत नहीं है । केवल अभेद ( ब्रह्माद्वैत ) की सत्ता किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होती है । प्रत्यक्ष से तो सर्वत्र भेद की ही प्रतीति होती है । प्रतीतिसिद्ध भेद का अपलाप नहीं किया जा सकता है । अनुमान प्रमाण से अभेद की सिद्धि मानने में द्वैत का प्रसंग प्राप्त होता है । यहाँ ब्रह्म साध्य है और अनुमान उसका साधक है । भेद के बिना उनमें साध्य-साधकभाव कैसे बन सकता है । यही बात 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' इत्यादि आगम के विषय में भी कही जा सकती है । यहाँ ब्रह्म प्रतिपाद्य हैं और आगम उसका प्रतिपादक है । किन्तु अभेद में प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव किसी भी प्रकार संभव नहीं है । ब्रह्म को सम्पूर्ण लोक की सृष्टि, स्थिति और प्रलय का हेतु मानना भी असंगत है । क्योंकि अद्वैतैकान्त में कार्यकारणभाव नहीं बन सकता है । कार्यकारणभाव तो द्वैत में ही पाया जाता है । अविद्या के द्वारा भेद की प्रतीति मानना भी युक्तिसंगत नहीं है । क्योंकि अविद्या को ब्रह्माद्वैतवादियों ने अवस्तु माना है और जो अवस्तु है वह किसी का कारण कैसे हो सकता है ? खरविषाण किसी का कारण नहीं होता है । अतः घटपटादि भेद तथा चेतन-अचेतन भेद अविद्यानिर्मित नहीं है । इत्यादि प्रकार से विचार करने पर ब्रह्माद्वैत के अभिनिवेश ( दुराग्रह ) को छोड़कर वास्तविक तथा प्रमाणसिद्ध चेतन और अचेतन रूप वस्तुओं के भेद को स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है ।
विज्ञानाद्वैतवाद यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि बौद्धदार्शनिकों के चार भेद हैं-वैभाषिक ( बाह्यार्थप्रत्यक्षवादी ) सौत्रान्तिक ( बाह्यार्थानुमेयवादी ) योगाचार ( विज्ञानाद्वैतवादी ) और माध्यमिक ( शून्यवादी ) । पूर्वपक्ष
योगाचारमतावलम्बी विज्ञानाद्वैतवादियों का मत है कि विज्ञप्तिमात्र ही वास्तविक तत्त्व है और उस तत्त्व का ग्राहक ज्ञान प्रमाण है । ग्राह्य-ग्राहक के भेद से रहित विज्ञप्ति ( ज्ञान ) के अतिरिक्त अन्य किसी बाह्य अर्थ की