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प्रथम परिच्छेद : सूत्र १३
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विचार करना है कि प्रमाण की उत्पत्ति कैसे होती है । हम मीमांसक से पूछना चाहते हैं कि उत्पत्ति में स्वतः प्रामाण्य का अर्थ क्या है । यहाँ तीन विकल्प हो सकते हैं-(१) प्रामाण्य कारण के बिना होता है, (२) प्रामाण्य स्वसामग्री से होता है, और (३) प्रामाण्य विज्ञानमात्रसामग्री से होता है ।
- इनमें से प्रथम विकल्प ठीक नहीं है । क्योंकि कोई भी वस्तु कारण के बिना उत्पन्न नहीं होती है । तब प्रामाण्य भी कारण के बिना कैसे उत्पन्न होगा ? दूसरा विकल्प स्वसामग्री से उत्पन्न होने का है जो हमें अभीष्ट है । सब पदार्थों की उत्पत्ति अपनी कारणसामग्री से ही होती है । अतः प्रामाण्य की स्वसामग्री से उत्पत्ति मानना सर्वथा उचित है । तृतीय विकल्प में विज्ञानमात्र सामग्री से प्रामाण्य की उत्पत्ति मानी गई है जो असंगत है। विज्ञानमात्रसामग्री का अर्थ है-विज्ञानसामान्य की सामग्री । ऐसी सामग्री से तो विज्ञान सामान्य की ही उत्पत्ति होगी, प्रामाण्य या अप्रामाण्य की नहीं । हम कह सकते हैं कि प्रामाण्य विज्ञान सामान्य सामग्रीजन्य नहीं है, क्योंकि वह विज्ञान से पृथक् है । कोई भी विज्ञान प्रमाण भी हो सकता है
और अप्रमाण भी । अतः पृथक् पृथक् कार्य होने से विज्ञान और प्रामाण्य एकसामग्रीजन्य न होकर भिन्नसामग्रीजन्य हैं । तात्पर्य यह है कि विशिष्ट कार्य होने से प्रामाण्य विज्ञानमात्रसामग्री से उत्पन्न नहीं हो सकता है, उसकी उत्पत्ति के लिए तो विशिष्ट कारण की आवश्यकता होती है । इसीप्रकार अप्रामाण्य की उत्पत्ति के लिए भी विशिष्ट कारण की आवश्यकता होती है ।
उपर्युक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों विशिष्ट कार्य हैं, और इन दोनों की उत्पत्ति के लिए विशिष्ट कारणों का होना अनिवार्य है । जिस प्रकार अप्रामाण्यरूप विशिष्ट कार्य कामलादिदोषविशिष्ट चक्षुरादि से उत्पन्न होता है उसी प्रकार प्रामाण्यरूप विशिष्ट कार्य भी निर्मलता आदि गुणविशिष्ट चक्षुरादि से उत्पन्न होता है । किसी पीलिया रोग वाले व्यक्ति को शुक्ल शंख में पीतज्ञान हुआ । इस पीतज्ञान में प्रामाण्य नहीं है और इस अप्रामाण्य का कारण है आँख में पीलियारोग का होना । किसी स्वच्छचक्षु वाले व्यक्ति को शुक्ल शंख में शुक्लज्ञान हुआ । इस शुक्लज्ञान में प्रामाण्य है और यहाँ प्रामाण्य का कारण है चक्षु