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________________ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन किन्तु अधिगत अर्थ में भी विशिष्ट प्रमा को उत्पन्न करने वाले ज्ञान को भी प्रमाण माना गया है । किसी ने पहले जाना कि यह वृक्ष है और फिर जाना कि यह आम्रवृक्ष है । यहाँ आम्रवृक्ष का ज्ञान विशिष्ट प्रमा को उत्पन्न करने के कारण अपूर्वार्थ का ही ज्ञान माना जायेगा । पहले तो वस्तुमात्र का ज्ञान होता है । इसके बाद यह सुख साधन है अथवा दुःख का साधन है ऐसा ज्ञान होता है । यहाँ भी ज्ञात वस्तु में विशिष्ट प्रमा की उत्पत्ति होने से ज्ञात वस्तु का ज्ञान भी अपूर्वार्थ का ज्ञान माना जाता है । ज्ञात वस्तु में यदि संशय, विपर्यय या अनध्यवसाय हो जाता है तो वह अर्थ समारोप हो जाने के कारण अपूर्वार्थ ही कहलाता है । अपूर्वार्थविचार. कुमारिल भट्ट के अनुयायी मीमांसकों ने अपूर्व अर्थ के विज्ञान को प्रमाण माना है । इस विषय में उन्होंने कहा हैं तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितिम् । .. अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥ __ अर्थात् जो अपूर्व अर्थ का विज्ञान है, निश्चित है, बाधारहित है, निर्दोष कारणों से उत्पन्न हुआ है और लोक सम्मत है वह प्रमाण कहलाता है। यहाँ इस बात पर विचार किया गया है कि मीमांसकों ने जो अपूर्वार्थ के विज्ञान को प्रमाण माना है वह ठीक नहीं है । अपूर्वार्थ के ज्ञान को प्रमाण मानने पर प्रत्यभिज्ञान में अप्रामाण्य का प्रसंग प्राप्त होगा । क्योंकि प्रत्यभिज्ञान अनुभूत अर्थ ( पूर्वार्थ ) को जानता है । यह सुनिश्चित है कि स्मृति और प्रत्यक्ष से ज्ञात अर्थ में प्रत्यभिज्ञान की प्रवृत्ति होती है । अपूर्वार्थग्राही ज्ञान को प्रमाण मानने पर अनुमान में भी अप्रमाणता प्राप्त होगी । क्योंकि अनुमान व्याप्तिज्ञान से ज्ञात विषय में प्रवृत्ति करता है । अपूर्वार्थ विज्ञान को प्रमाण मानने वालों के मत में द्विचन्द्र आदि का ज्ञान भी प्रमाण हो जायेगा । क्योंकि एक चन्द्र में किसी को जो दो चन्दमाओं का ज्ञान होता है वह भी अपूर्वार्थ का ज्ञान है । इत्यादि युक्तियों के द्वारा मीमांसकाभिमत अपूर्वार्थज्ञान में प्रमाणत्व का निराकरण किया गया है । यहाँ मीमांसकों द्वारा यह शंका की गई है कि जब स्याद्वादियों ने स्वयं
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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