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प्रथम परिच्छेद : सूत्र ४, ५ विपरीत अर्थ की ख्याति ही हुई । अर्थात् जिसे स्मृतिप्रमोष माना गया है वह तो सादृश्य के कारण शुक्तिका में उसके विपरीत रजत का ज्ञान है । इसी का नाम विपरीतार्थख्याति या विपर्ययज्ञान है । इस प्रकार 'इदं रजतम्' इस ज्ञान को स्मृतिप्रमोष कहना तर्क संगत नहीं है । विपरीतार्थख्यातिवाद
नैयायिक, वैशेषिक तथा जैन विपर्यय ज्ञान को विपरीत अर्थ की ख्यातिरूप मानते हैं, जो युक्तिसंगत है । पुरुष के विपरीत स्थाणु में 'यह पुरुष है' ऐसी ख्याति को विपरीतार्थख्याति कहते हैं । इस ज्ञान में स्थाणु ही कुछ कारणों से पुरुषाकाररूप से प्रतिभासित होता है । शुक्तिका में जो रजत ज्ञान होता है वह भी विपरीतार्थख्याति का उदाहरण है । विपर्यय ज्ञान को विपरीतार्थख्यातिरूप मानने में कोई विसंगति नहीं है । विपर्यय ज्ञान मिथ्याज्ञान है और इसका निराकरण प्रमाण के लक्षण में व्यवसायात्मक विशेषण के द्वारा हो जाता है । - प्रमाण के लक्षण में अपूर्वार्थ विशेषण का समर्थन करने के लिए अपूर्वार्थ का लक्षण बतलाते हैं
- अनिश्चितोऽपूर्वार्थः ॥४॥ - जिस वस्तु का किसी यथार्थग्राही प्रमाण से अभी तक निश्चय नहीं हुआ है उसे अपूर्वार्थ कहते हैं । इसी बात को इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जिस अर्थ का स्वरूप ज्ञात न हो अथवा जिसका आकार विशेष ज्ञात न हो उसे अपूर्वार्थ कहते हैं । तात्पर्य यह है कि अनिश्चित, अज्ञात, अनवगत और अप्रतिपन्न ये सभी शब्द पर्यायवाची हैं । इस सूत्र में अपूर्व शब्द अर्थ का विशेषण है । प्रमाण कैसे अर्थ को जानता है ? प्रमाण उस अर्थ को जानता है जो अपूर्व हो । अर्थात् पूर्व में किसी प्रमाण से ज्ञात न हो । अपूर्वार्थ का एक दूसरा लक्षण भी है
दृष्टोऽपि समारोपात् तादृक् ॥५॥ ..केवल अप्रतिपन्न ( अदृष्ट ) अर्थ ही अपूर्वार्थ नहीं है, किन्तु दृष्ट
( प्रतिपन्न ) अर्थ भी उसमें समारोप हो जाने के कारण अपूर्वार्थ कहलाता
है । इस प्रकार के अर्थ का निश्चायक जो ज्ञान है वह प्रमाण होता है । । केवल अनधिगत अर्थ को जानना ही प्रमाण का लक्षण नहीं है,