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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
अख्यातिवाद
अख्यातिवादी चार्वाक का कहना है कि मरीचिका में जो जलज्ञान होता है वह निरालम्बन है । उसका विषय न तो जल है और न मरीचिका है । यदि जल या मरीचिका उस ज्ञान का आलम्बन होता तो उस ज्ञान को अभ्रान्त होना चाहिए ।
चार्वाक का उक्त कथन ठीक नहीं है । यदि वहाँ कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता है तो मरीचिका में 'यह जल' है, शुक्तिका में 'यह रजत' है, ऐसा कथन कैसे बनेगा ? अतः वहाँ जल या रजत के रूप में प्रतिभासमान जो अर्थ है वही विपर्यय ज्ञान का आलम्बन ( विषय ) है । इसलिए विपर्ययज्ञान अख्यातिरूप नहीं है ।
असत्ख्यातिवाद
सौत्रान्ति का कथन है कि विपर्यय ज्ञान में प्रतिभासमान अर्थ सद्रूप नहीं है । शुक्तिका में शुक्तिका का प्रतिभास न होकर रजत का प्रतिभास होता है । किन्तु शुक्तिका में रजताकार तो है नहीं । इस कारण शुक्तिका में जो रजत का प्रतिभास होता है उसका नाम असत्ख्याति है ।
सौत्रान्तिक का उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं है । क्योंकि आकाशपुष्प आदि की तरह असत् अर्थ का प्रतिभास कभी भी नहीं हो सकता है । असत्ख्यातिवादियों के मत में विभिन्न प्रकार की भ्रान्तियाँ भी नहीं बन सकती हैं । क्योंकि उनके यहाँ न तो अर्थगत वैचित्र्य है और न ज्ञानगत वैचित्र्य है । और इसके अभाव में अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ संभव नहीं हैं । अतः विपर्यय ज्ञान में प्रमाण प्रसिद्ध अर्थ ही भ्रान्तरूप से प्रतिभासित होता है । इस प्रकार असत्ख्यातिवाद निरस्त हो जाता है ।
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प्रसिद्धार्थख्यातिवाद
सांख्य का मत है कि विपर्यय ज्ञान प्रसिद्धार्थ की ख्यातिरूप होता है । अर्थात् मरीचिका में प्रतिभासित जलरूप अर्थ घट की तरह सत्यभूत है । यद्यपि उत्तरकाल में जलरूप अर्थ वहाँ नहीं मिलता है, तथापि जब उसका प्रतिभास होता है तब तो वह वहाँ विद्यमान ही रहता है ।
सांख्य का उक्त कथन अविचारित रमणीय है । यदि सब ज्ञानों को यथावस्थित अर्थग्राही ( प्रसिद्धार्थग्राही ) माना जावे तो ज्ञानों में भ्रान्त