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प्रथम परिच्छेद : सूत्र ३
यहाँ तत्त्वोपप्लववादी शंका करता है कि संशयादिज्ञानों का स्वरूप ही सिद्ध नहीं है, तब व्यवसायात्मक विशेषण से उनका निरास कैसे होगा ? संशय ज्ञान में धर्मी प्रतिभासित होता है अथवा स्थाणुत्वरूप या पुरूषत्वरूप धर्म प्रतिभासित होता है, इत्यादि विकल्पों द्वारा पूर्वपक्ष ने संशय ज्ञान के स्वरूप को असिद्ध प्रतिपादित किया है । - यहाँ सिद्धान्तपक्ष यह है कि चलित प्रतिपत्तिरूप ( दोलायमान ज्ञान रूप ) संशय सब प्राणियों को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से अनुभव में आता है । वह चाहे धर्मी को विषय करे अथवा धर्म को, किन्तु उक्त विकल्पों से उसके स्वरूप का अपह्नव ( लोप ) नहीं किया जा सकता है । यदि प्रत्यक्ष सिद्ध अर्थ का भी अपह्नव किया जाय तो सुख-दुःखादि का भी अपह्नव मानना पड़ेगा । संशय धर्मिविषयक है या धर्मविषयक इत्यादि विकल्प करने वाला व्यक्ति स्वयं संशयारूढ है । फिर वह संशय का निराकरण कैसे कर सकता है ? ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि संशय का कोई उत्पादक कारण नहीं है । समान धर्म ऊर्ध्वता सामान्य की उपलब्धि होने से और असमान धर्म ( पुरुष के सिर, पाणि आदि और वृक्ष के वक्रकोटर आदि ) के अनुपलब्ध होने से यह पुरुष है अथवा स्थाणु है ऐसा संशयरूप ज्ञान उत्पन्न होता है । चलितप्रतिपत्तिरूप उसका असाधारण स्वरूप तथा ऊर्ध्वतासामान्यरूप उसका विषय भी पाया ही जाता है । इस प्रकार संशयरूप ज्ञान के सद्भाव में कोई विप्रतिपत्ति ( विवाद ) नहीं है ।
विपर्यय ज्ञान में अख्याति आदि का विचार
किसी अर्थ में जो विपरीत ज्ञान होता है उसे विपर्यय ज्ञान कहते हैं । - जैसे शुक्ति का ( सीप ) में रजत ( चाँदी ) का ज्ञान विपर्यय ज्ञान है । · कुछ लोग विपर्यय ज्ञान को अख्याति आदि रूप मानते हैं । चार्वाक का
कथन है कि विपर्ययज्ञान अख्यातिरूप है । सौत्रान्तिक उसे असत्ख्यातिरूप, सांख्य प्रसिद्धार्थख्यातिरूप, विज्ञानाद्वैतवादी आत्मख्यातिरूप, ब्रह्माद्वैतवादी अनिर्वचनीयार्थख्यातिरूप, नैयायिक-वैशेषिक विपरीतार्थख्यातिरूप और प्राभाकर विपर्ययज्ञान को स्मृतिप्रमोषरूप मानते हैं । अब इन्हीं मतों का यहाँ विचार किया जा रहा है ।