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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
से परिणमन करता है । अर्थात् वह वाचक तथा वाच्य दोनों रूप है । ऐसा शब्दाद्वैतवादियों का मत है ।
उत्तरपक्ष
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शब्दाद्वैतवादियों का उक्त मत अनेक दोषों से दूषित होने के कारण ग्राह्य नहीं है । ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व का प्रतिभास प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है । प्रत्यक्ष के द्वारा तो शब्द रहित अर्थ काही प्रतिभास होता है । दोनों का देश भिन्न होने के कारण शब्द और अर्थ में तादात्म्य भी सिद्ध नहीं किया जा सकता है । शब्दाकार रहित नीलादिरूप का चाक्षुष ज्ञान में प्रतिभास होता है और अर्थाकार रहित शब्द का श्रोत्रज्ञान में प्रतिभास होता है । इसलिए उन दोनों में ऐक्य कैसे हो सकता है ? इस प्रकार जगत् को शब्दात्मक मानना किसी भी प्रकार उचित नहीं है । क्योंकि न तो जगत् शब्द के परिणमनरूप हैं और न शब्द से उसकी उत्पत्ति होती है । सविकल्पक प्रत्यक्ष से यह अच्छी तरह से ज्ञात होता है कि शब्दाकार से रहित घट आदि पदार्थों का जो प्रतिभास होता है वह शब्द और अर्थ में भिन्नता सिद्ध करता है । यदि सब पदार्थ शब्दात्मक होते तो
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" शब्द का ज्ञान होने पर संकेत को न जानने वाले पुरुष को भी अर्थ का ज्ञान हो जाना चाहिए । क्योंकि शब्द और अर्थ में तादात्म्य होने के कारण शब्द का ज्ञान होने पर अर्थ का ज्ञान होना आवश्यक है । अन्यथा उनमें तादात्म्य कैसे बनेगा ? अर्थ को शब्दात्मक मानने में एक दोष यह भी है कि अग्नि, पाषाण आदि शब्दों के सुनने पर श्रोत्र में दाह, अभिधात आदि का प्रसंग प्राप्त होगा । निष्कर्ष यह है कि शब्दब्रह्म की सिद्धि प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से नहीं होती है । अतः सब ज्ञानों में शब्दानुविद्धत्व की सिद्धि किसी भी प्रकार संभव नहीं है ।
संशयस्वरूपविचार
प्रमाण के लक्षण में व्यवसायात्मक विशेषण के द्वारा बौद्धों के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में प्रामाण्य का निराकरण तो किया ही गया है, इसके साथ ही संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप मिथ्याज्ञानों का भी निराकरण किया गया है ।