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प्रथम परिच्छेद : सूत्र ३
स्वपरपरिच्छित्ति में साधकतम नहीं होने के कारण प्रमाण नहीं हो सकता है । इत्यादि प्रकार से अनेक युक्तियों के द्वारा विस्तार से निर्विकल्पक ज्ञान में प्रामाण्य का निराकरण किया गया है । तथा यह सिद्ध किया गया है कि स्वपरपरिच्छित्ति में साधकतम होने से, संवादक होने से और अनिश्चित अर्थ का निश्चायक होने से सविकल्पक ज्ञान प्रमाण है, अनुमान की तरह । जिस प्रकार बौद्धाभिमत अनुमान निश्चयात्मक होने के कारण प्रमाण है, उसी प्रकार सविकल्पक प्रत्यक्ष भी निश्चयात्मक होने केकारण प्रमाण है । इसके विपरीत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सन्निकर्षादि की तरह प्रमाण नहीं है । क्योंकि वह न तो स्वपरपरिच्छित्ति में साधकतम है, न संवादक है और न अनिश्चित अर्थ का निश्चायक है । निष्कर्ष यह है कि प्रत्यक्ष को कल्पनापोढ मानना तथा अनिश्चयात्मक मानना सर्वथा गलत है ।
___ शब्दाद्वैतविचार पूर्वपक्ष
भर्तृहरि आदि वैयाकरण शब्दाद्वैतवादी हैं । वे मानते हैं कि सब ज्ञान शब्दानुविद्ध ( शब्दरूपता को प्राप्त ) होने के कारण सविकल्पक हैं । यदि ज्ञानों में शब्दरूपता न हो तो उनमें प्रकाशरूपता भी नहीं आ सकती है । ज्ञानों में जो वाक्प ता है वह शाश्वती और प्रकाशहेतुभूत है । यह सब वाच्य-वाचक तत्व शब्द ब्रह्म का ही विवर्त ( पर्याय ) है । वह न तो अन्य किसी का विवर्त है और न स्वतन्त्र है । इस विषय में भर्तृहरि ने वाक्यपदीय ग्रन्थ में बतलाया है- .
न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमाद् ऋते । .. अनुविद्धमिवाभाति सर्वं शब्दे प्रतिष्ठितम् ॥ . अर्थात् लोक में ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जिसमें शब्द का अनुगम
( अन्वय ) न हो । शब्द ब्रह्म में स्थित सर्व वाच्यवाचक तत्त्व शब्दानुविद्ध " होकर ही प्रतिभासित होता है । शब्द ब्रह्म के विषय में और भी कहा है
अनादिनिधनं शब्दब्रह्मतत्त्वं यदक्षरम् ।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥ ... . अर्थात् शब्दब्रह्म अनादिनिधन है । उसे अक्षर भी कहते हैं, क्योंकि । वह अकारादि अक्षरों का कारण होता है । वही शब्दब्रह्म घटादि अर्थरूप