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________________ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन .. सिद्ध होना चाहिए, तभी उसमें प्रत्यक्षत्व सिद्ध हो सकता है । अतः अनुमान की तरह प्रत्यक्ष को भी निश्चयात्मक मानना आवश्यक है । तभी वह प्रमाण की कोटि में आ सकता है । . बौद्धाभिमत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का निराकरण पूर्वपक्ष बौद्ध प्रत्यक्ष को कल्पनापोढ अर्थात् कल्पना रहित मानते हैं । शब्द संसर्ग को कल्पना कहते हैं । दूसरे शब्दों में ज्ञान में नाम, जाति, गुण, क्रिया और द्रव्य की योजना को कल्पना कहते हैं । किसी व्यक्ति को राम, मोहन आदि कहना यह नाम योजना है । गोत्वविशिष्ट गाय को गौ कहना यह जाति योजना है । इसी प्रकार गुण, क्रिया आदि की योजना भी की जाती है । जिस ज्ञान में शब्द का संसर्ग ( सम्बन्ध ) होता है वह ज्ञान सविकल्पक कहलाता है और जिस ज्ञान में शब्दसंसर्ग नहीं होता है उसे निर्विकल्पक कहते हैं। इसी विषय में धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में कहा है प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति ।.. प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकल्पो नामसंश्रयः ॥ अर्थात् प्रत्यक्ष कल्पना रहित होता है इस बात की सिद्धि प्रत्यक्ष से ही हो जाती है । और शब्द के आश्रय से होने वाला विकल्प भी सब को अनुभव में आता है। ___ इस प्रकार बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को प्रमाण और सविकल्पक प्रत्यक्ष को अप्रमाण मानते हैं । उत्तरपक्ष बौद्धों का उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं है । क्योंकि जो अनिश्चयात्मक है उसमें प्रामाण्य किसी प्रकार नहीं हो सकता है । अन्यथा गच्छत्तृणस्पर्श संवेदन में भी प्रमाणता का प्रसंग प्राप्त होगा । मार्ग में जाते हुए व्यक्ति को तृण का स्पर्श होने पर ऐसा आभास होता है कि जिसका स्पर्श हुआ है वह कोई चीज है । किन्तु उसका निश्चय नहीं हो पाता है कि वह क्या है । इसे ही अनध्यवसाय कहा गया है । यह ज्ञान अनिश्चयात्मक होने के कारण प्रमाण नहीं माना जाता है । इसी प्रकार जो भी अनिश्चयात्मक ज्ञान है वह
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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