________________
प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन .
इन्द्रियवृत्तिविचार : ___सांख्य इन्द्रियवृत्ति को प्रमाण मानते हैं । इन्द्रियवृत्ति का अर्थ है इन्द्रियों का व्यापार । चक्षु आदि इन्द्रियाँ जब घटादि अर्थ के प्रति व्यापार करती हैं तभी घटादि अर्थ का ज्ञान होता है । अत: इन्द्रियवृत्ति को प्रमाण मानना युक्तिसंगत है, ऐसा सांख्य का मत है ।
सांख्य का उक्त मत समीचीन नहीं है । जब इन्द्रियाँ अचेतन हैं तो इन्द्रियों का व्यापार भी अचेतन ही होगा । अत: जो अचेतन ( अज्ञानरूप) है उसके द्वारा स्व और पर की परिच्छित्ति ( ज्ञान ) कदापि संभव नहीं है । स्वपरपरिच्छित्ति तो अज्ञान के विरोधी ज्ञान के द्वारा ही होती है । इन्द्रियवृत्ति भी सन्निकर्ष की तरह अज्ञानरूप है । इनमें कोई विशेष अन्तर नहीं है । इस प्रकार इन्द्रियवृत्ति में प्रमाणता सिद्ध नहीं होती है। . . ज्ञातृव्यापरविचार :
मीमांसकमतानुयायी प्रभाकर ज्ञातृव्यापार को प्रमाण मानता है । पदार्थ को जानने के लिए ज्ञाता का जो व्यापार होता है उसका नाम ज्ञातव्यापार है । किन्तु यह ज्ञातृव्यापार भी अज्ञानरूप है । क्योंकि ज्ञाता आत्मा चेतना के समवाय से चेतन है, वह स्वतः चेतन नहीं है । अतः उसका व्यापार भी अचेतन ही माना जायेगा । और जो अचेतन या अज्ञानरूप है वह प्रमिति की उत्पत्ति में साधकतम नहीं हो सकता है । अज्ञानरूप वस्तु को तो उपचार से ही प्रमाण माना जा सकता है । उसमें अनुपचरित प्रमाणव्यपदेश कभी भी संभव नहीं है । ज्ञातव्यापार के स्वरूप का ग्राहक प्रत्यक्ष आदि कोई प्रमाण भी नहीं है । इस प्रकार ज्ञातृव्यापार को प्रमाण मानने में अनेक दोष आने के कारण उसमें प्रामाण्य संभव नहीं है। ____ निष्कर्ष यह है कि कारकसाकल्य, सन्निकर्ष, इन्द्रियवृत्ति और ज्ञातृव्यापार-ये सब अज्ञानरूप होने के कारण प्रमाण की कोटि में नहीं आ सकते हैं । प्रमाण तो वही हो सकता है जो अज्ञान का विरोधी हो । अर्थात् ज्ञान ही प्रमाण होता है । इसी बात को आगे के सूत्र में बतलाया गया है । ज्ञान में प्रमाणत्वसिद्धि: हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ॥२॥