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प्रथम परिच्छेद : सूत्र १
सन्निकर्षवाद :
नैयायिक-वैशेषिकों का मत है कि प्रमिति की उत्पत्ति में साधकतम होने से सन्निकर्ष प्रमाण है । इन्द्रियों का अर्थ के साथ जो सम्बन्ध होता है उसका नाम सन्निकर्ष है । जैसे चक्षु का घट के साथ सन्निकर्ष होने से घट का ज्ञान होता है । यहाँ घट का ज्ञान होने में सन्निकर्ष साधकतम होने के कारण प्रमाण है । इसी प्रकार सर्वत्र इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से ही प्रमिति की उत्पत्ति होती है और प्रमिति की उत्पत्ति में साधकतम होने के कारण सन्निकर्ष प्रमाण कहलाता है। . नैयायिक-वैशेषिकों का उक्त मत अविचारित रमणीय है । क्योंकि कारकसाकल्य की तरह सन्निकर्ष भी अज्ञानरूप है । इन्द्रियाँ अचेतन हैं और घटादि अर्थ भी अचेतन हैं । तब दोनों का सन्निकर्षरूप सम्बन्ध भी अचेतन ही रहेगा । अतः अचेतन या अज्ञानरूप सन्निकर्ष के द्वारा स्वपरपरिच्छित्ति कैसे हो सकती है ? जिस प्रकार चक्षु का घट के साथ संयोगरूप सन्निकर्ष है उसी प्रकार उसका आकाश के साथ भी तो संयोग है । तो चक्षु से आकाश की प्रमिति क्यों नहीं होती है ? इससे यही सिद्ध होता है कि सन्निकर्ष स्वपरपरिच्छित्ति करने में समर्थ नहीं है । इस प्रकार सन्निकर्ष में प्रमाण का लक्षण न पाये जाने से असंभव दोष आता है । - सन्निकर्ष को प्रमाण मानने में अव्याप्ति दोष भी आता है । क्योंकि चक्षु अप्राप्यकारी है । अर्थात् चक्षु अर्थ को प्राप्त करके नहीं जानती है किन्तु दूर से ही जानती है । इससे यह सिद्ध होता है कि चक्षु का अर्थ के साथ सन्निकर्ष नहीं होने पर भी घटादि अर्थ का ज्ञान हो जाता है । स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र ये चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं । इस कारण इनका तो अर्थ के साथ सन्निकर्ष होता है, किन्तु चक्षु का अर्थ के साथ सन्निकर्ष नहीं होता । अतः सन्त्रिकर्ष को सब इन्द्रियों में न रहने के कारण अव्याप्ति दोष का प्रसंग आता है । सन्निकर्ष को प्रमाण मानने वालों के मत में कोई सर्वज्ञ भी सिद्ध नहीं हो सकता है । सर्वज्ञ वह कहलाता है जो अतीन्द्रिय तथा सूक्ष्म परमाणु आदि पदार्थों को भी जानता हो । परन्तु सूक्ष्म परमाणु आदि पदार्थों के साथ तो इन्द्रिय सन्निकर्ष होता नहीं है । तब इन पदार्थों को सर्वज्ञ कैसे जानेगा ? इत्यादि प्रकार से विचार करने पर सन्निकर्ष में प्रमाणत्व सिद्ध नहीं होता है।