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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
वह अर्थ की उपलब्धि में साधकतम ( करण ) होता है । कारकसाकल्य का अर्थ है - आत्मा, मन, अर्थ, आलोक, इन्द्रिय आदि जिन जिन कारणों से अर्थ की उपलब्धि होती है उनकी समग्रता । इसमें बोध और अबोध रूप सब कारण सम्मिलित रहते हैं । और साधकतम होने से अर्थ की उपलब्धि जनक कारणों की समग्रता का नाम ही प्रमाण है । ऐसा कारकसाकल्यवादियों का मत है ।
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कारकसाकल्यवादियों का उक्त मत समीचीन नहीं है । क्योंकि कारकसाकल्य अज्ञानरूप है और जो अज्ञानरूप है वह घट की तरह स्वपरपरिच्छित्ति ( स्वपरबोध ) में साधकतम नहीं हो सकता है । स्वपरपरिच्छिति में साधकतम तो अज्ञानविरोधी ज्ञान ही होता है । यदि कारकसाकल्यवादी कारकसाकल्य को प्रदीपादि की तरह उपचार से साधकतम मानना चाहें तो इसमें कोई आपत्ति की बात नहीं है । किन्तु स्वपररिच्छित्ति में मुख्यरूप से साधकतम तो ज्ञान ही होता है । ऐसे ज्ञान का उत्पादक होने से कारकसाकल्य को भी उपचार से साधकतम माना जा सकता है । तथा कारण में कार्य का उपचार करके कारकसाकल्य में प्रमाण का व्यवहार भी किया जा सकता है । परन्तु अनुपचरित प्रमाण व्यवहार तो ज्ञान में ही होता है । इसी बात को इस प्रकार समझाया गया है । जो जहाँ किसी दूसरे से व्यवहित नहीं होता है वह वहाँ मुख्यरूप से साधकतमं कहलाता है । जिस प्रकार छेदनरूप क्रिया में अयस्कार ( लोहार ) कुठार से व्यवहित हो जाने के कारण साधकतम नहीं होता है, उसी प्रकार कास्कसाकल्य भी स्वपरपरिच्छित्ति में ज्ञान से व्यवहित हो जाने के कारण साधकतम नहीं हो सकता है । तथा स्वपरपरिच्छित्ति में साधकतम न होने के कारण कारकसाकल्य में अनुपचरित (मुख्य) प्रमाण व्यवहार कभी भी संभव नहीं है ।
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कारकसाकल्य क्या है ? क्या सकल कारकों का नाम कारकसाकल्य है या उनके धर्म का नाम अथवा उनके कार्य का नाम कारक साकल्य है, इत्यादि प्रकार से कारक साकल्य के विषय में अनेक विकल्प करके भी कारक साकल्य का निरकारण किया गया है । निष्कर्ष यह है कि कारकसाकल्य का कोई स्वरूप सिद्ध नहीं होता है । यदि उसका स्वरूप सिद्ध भी हो जावे तो उसमें ज्ञान के द्वारा व्यवधान आने के कारण उसे अनुपचरित प्रमाण नहीं माना जा सकता है ।