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प्रथम परिच्छेद . इस परिच्छेद में प्रमाण सामान्य का वर्णन किया गया है । प्रमाण के विषय में चार प्रकार की विप्रतिपत्तियाँ (मतभेद) हैं-स्वरूपविप्रतिपत्ति, संख्याविप्रतिपत्ति, विषयविप्रतिपत्ति और फलविप्रतिपत्ति । सर्वप्रथम स्वरूपविप्रतिपत्ति का निराकरण प्रथम सूत्र में किया गया है । प्रमाण का लक्षण
स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ॥१॥ - अपने और अपूर्व अर्थ के निश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं ।
यहाँ प्रमाण' लक्ष्य है और स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानम्' उसका लक्षण है ।प्रमाण के लक्षण में ५ विशेषण दिये गये हैं-स्व, अपूर्व, अर्थ, व्यवसायात्मक
और ज्ञान । प्रत्येक विशेषण का एक निश्चित प्रयोजन होता है । अब यहाँ प्रत्येक विशेषण की सार्थकता या प्रयोजन बतलाते हैं । प्रमाण के लक्षण में ज्ञान विशेषण के द्वारा उन लोगों का निराकरण किया गया है जो अज्ञानरूप सन्निकर्ष आदि को प्रमाण मानते हैं । व्यावसायात्मक विशेषण के द्वारा बौद्धों का निराकरण किया गया है जो प्रत्यक्ष प्रमाण को अव्यवसायात्मक (निर्विकल्पक) मानते हैं । अर्थ विशेषण के द्वारा बाह्य पदार्थों का अपलाप ( अभाव ) करने वाले विज्ञानाद्वैतवादी, ब्रह्माद्वैतवादी और शून्याद्वैतवादियों का निराकरण किया गया है । अर्थ पदको अपूर्व के साथ मिला देने पर अपूर्वार्थ पद बनता है । इस अपूर्वार्थ विशेषण के द्वारा धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण मानने वालों का निराकरण किया गया है । और 'स्व' विशेषण के द्वारा परोक्षज्ञानवादी मीमांसकों, ज्ञानान्तरप्रत्यक्षज्ञानवादी यौगों और अस्वसंवेदनज्ञानवादी सांख्यों के मतों का निराकरण किया गया है। . प्रथम सूत्र की व्याख्या में प्रमाण के लक्षण में ज्ञान विशेषण की सार्थकता पर विचार किया गया है और जो प्रमाण को ज्ञानरूप नहीं मानते हैं उनके मत का निराकरण किया गया है । अब तदनुसार ही विचार किया जा रहा है। कारकसाकल्यवाद :
जरनैयायिक जयन्तभट्ट कारकसाक्लय को प्रमाण मानते हैं । क्योंकि