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प्रस्तावना
जैमिनीय और मीमांसकों के नामोल्लेखपूर्वक उनके सिद्धान्तों के उल्लेख से ज्ञात होता है कि माणिक्यनन्दि को जैनन्याय के अतिरिक्त इतर दर्शनों का भी अच्छा ज्ञान था ।
यतः परीक्षामुख एक सूत्रग्रन्थ है, अतः इसमें सूत्र का निम्नलिखित लक्षण पूर्णरूप से पाया जाता है
अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद्विश्वतोमुखम् । . अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥
सूत्र के इस लक्षण में छह विशेषण हैं-(१) अल्पाक्षर-सूत्र में कम अक्षर होते हैं । (२) असन्दिग्ध-अल्पाक्षर होते हुए भी सूत्र में जो बात कही जाती है वह सब प्रकार के सन्देह से रहित होती है । (३) सारवत्सूत्र में सार तत्त्व ( मुख्य तत्त्व ) की ही बात कही जाती है । (४) विश्वतोमुख-सूत्र की दृष्टि चारों ओर रहती है अर्थात् वह सब ओर से समस्त उपयोगी बातों को अपने में संगृहीत कर लेता है । (५) अस्तोभ ( स्तोभरहित )-जो किसी प्रतिरोध ( रुकावट ) के बिना अपने लक्ष्य की ओर उन्मुख रहता है अर्थात् जो समस्त बाधाओं को दूर करके अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सक्षम होता है. । और (६) अनवद्य-जो सब प्रकार से अनवद्य ( निर्दोष ) है । ऐसा सूत्र का लक्षण परीक्षामुख में पूर्णरूप से घटित होता है। परीक्षामुख का परिमाण__ परीक्षामुख में छह परिच्छेद हैं और २१२ सूत्र हैं । परीक्षामुख के प्रथम परिच्छेद में १३ सूत्र, द्वितीय परिच्छेद में १२ सूत्र, तृतीय परिच्छेद में १०१ सूत्र, चतुर्थ परिच्छेद में ९ सूत्र, पञ्चम परिच्छेद में ३ सूत्र और षष्ठ परिच्छेद में ७४ सूत्र हैं । इस प्रकार वर्तमान में उपलब्ध परीक्षामुखसूत्र पाठ के आधार पर परीक्षामुख के कुल सूत्रों की संख्या २१२ है । परीक्षामुख का प्रतिपाद्य विषय
परीक्षामुख का प्रतिपाद्य विषय प्रमाण और प्रमाणाभास का विवेचन ..है । इसके प्रथम परिच्छेद में प्रमाण सामान्य का विवेचन किया गया है ।
द्वितीय परिच्छेद में प्रत्यक्ष प्रमाण का विवेचन और तृतीय परिच्छेद में