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________________ प्रस्तावना प्रामाण्य विचार प्रमाण जिस पदार्थ को जिस रूप में जानता है उसका उसी रूप में प्राप्त होना प्रमाण का प्रामाण्य कहलाता है । किसी पुरुष ने किसी स्थान में दूर से जल का ज्ञान किया और वहाँ जाने पर उसे जल मिल गया तो उसके ज्ञान में प्रामाण्य सिद्ध हो जाता है । यहाँ प्रश्न यह है कि इस प्रकार के प्रामाण्य का ज्ञान कैसे होता है ? अर्थात् किसी ने दूर से जाना कि वहाँ जल है तो उसे जो जल ज्ञान हुआ वह सत्य है या असत्य, इसका निर्णय कैसे होगा ? . - जैनदर्शन में बतलाया गया है कि ज्ञान के प्रामाण्य का निर्णय अभ्यास अवस्था में स्वतः और अनभ्यास अवस्था में परतः होता है । अभ्यस्त अवस्था में तो जलज्ञान के प्रामाण्य का निर्णय प्रमाता को स्वयं ही हो जाता है, क्योंकि अभ्यास के कारण उसे जलज्ञान के सत्य होने में कोई सन्देह नहीं रहता है । किन्तु अनभ्यस्त अवस्था में शीतल वायु का स्पर्श, कमलों की सुगन्ध, मेढकों का शब्द आदि पर निमित्तों से जलज्ञान की सत्यता का निर्णय किया जाता है । ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य के विषय में अन्य दार्शनिकों में विवाद है । न्याय-वैशेषिक प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को परत:, सांख्य दोनों को स्वतः तथा मीमांसक प्रामाण्य को स्वतः और अप्रामाण्य को परतः मानते हैं । मीमांसकों के अनुसार प्रत्येक ज्ञान पहले प्रमाणरूप ही उत्पन्न होता है । बाद में यदि ज्ञान के कारणों में दोषज्ञान अथवा बाधक प्रत्यय के द्वारा उसकी प्रमाणता दूर कर दी जाय तो वह ज्ञान अप्रमाण मान लिया जाता है । प्रमेयकमलमार्तण्ड में मीमांसकों की इस मान्यता का विस्तार से खण्डन करके यह सिद्ध किया गया है कि ज्ञान का प्रामाण्य अभ्यास दशा में स्वतः और अनभ्यास दशा में परतः होता है । किन्तु प्रमाण और अप्रमाण की उत्पत्ति सदा परतः ही होती है । केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति विचार का स्रोत आचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र में केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति के विषय में विस्तार से विचार किया है । यहाँ यह देखना है कि प्रभाचन्द्र के उक्त विचार का स्रोत क्या है । आचार्य
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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