________________
प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
परम्परा के अनुसार विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष और अविशद ज्ञान को परोक्ष
माना गया है ।
१८
प्रत्यक्ष के भेद
प्रत्यक्ष के दो भेद हैं- मुख्य प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष । मुख्य प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं- सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष । सम्पूर्ण पदार्थों को युगपत् जानने वाला केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है और नियत अर्थों को पूर्णरूप से जानने वाले अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष कहलाते हैं । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैंइन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष । स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहलाता है और मन से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहलाता है । अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाये मतिज्ञान के चारों भेद सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाते हैं । परोक्ष के भेद
1
स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम- ये परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं । इनमें से स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क - इन तीनों प्रमाणों को अन्य दार्शनिकों ने पृथक् प्रमाण के रूप में नहीं माना है । नैयायिकों और मीमांसकों ने प्रत्यभिज्ञान के स्थान पर उपमान को प्रमाण माना है । किन्तु व्याप्ति ग्राहक तर्क को तो किसी ने भी प्रमाण नहीं माना है । जैन दार्शनिकों युक्तिपूर्वक यह सिद्ध किया है कि तर्क के बिना अन्य किसी प्रमाण से व्याप्ति का ग्रहण नहीं हो सकता है
प्रमाणों की संख्या
-
विभिन्न दार्शनिकों ने प्रमाणों की संख्या भिन्न-भिन्न मानी है । चार्वाक केवल एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है । बौद्ध और वैशेषिक दो प्रमाण मानते हैं—प्रत्यक्ष और अनुमान । सांख्य तीन प्रमाण मानते हैंप्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । नैयायिक उपमान सहित चार, प्राभाकर अर्थापत्ति सहित पाँच और भाट्ट अभाव सहित छह प्रमाण मानते हैं. । किन्तु जैनन्याय में उपमान का प्रत्यभिज्ञान में, अर्थापत्ति का अनुमान में और अभाव का प्रत्यक्ष आदि में अन्तर्भाव करके प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण की द्वित्व संख्या का समर्थन किया गया है ।