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________________ प्रस्तावना प्रमाण को व्यवसायात्मक ( निश्चयात्मक ) भी होना चाहिए । क्योंकि जो ज्ञान अनिश्चयात्मक है वह प्रमाण कैसे हो सकता है ? प्रमाण के भेद जैनदर्शन में प्रमाण के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल-इन पाँच ज्ञानों का प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में विभाजन आगमिक परम्परा में पहले से ही रहा है । प्रथम दो ज्ञान परोक्ष तथा शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध का अन्तर्भाव मतिज्ञान में ही किया गया है । आगम में प्रत्यक्षता और परोक्षता का आधार भी दार्शनिक परम्परा से भिन्न है । आगमिक परिभाषा में इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मामात्र की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । अक्षं प्रतिगतं प्रत्यक्षम्' इस व्युत्पत्ति में अक्ष का अर्थ आत्मा किया गया है । और जिस ज्ञान की उत्पत्ति में इन्द्रिय, मन और प्रकाश आदि बाह्य साधनों की अपेक्षा होती है वह ज्ञान परोक्ष माना गया है । आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में प्रत्यक्ष और परोक्ष की यही परिभाषा दी है । किन्तु दार्शनिक परम्परा के अनुसार इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होने वाले मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मान लिया गया है । अतः परसापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष की परिधि में सम्मिलित कर लेने से प्रत्यक्ष की परिभाषा में भी परिवर्तन करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। प्रत्यक्ष का लक्षण...अकलंकदेव ने लघीयत्रय में विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है और न्यायविनिश्चय में स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है । जिस ज्ञान में किसी अन्य ज्ञान के द्वारा व्यवधान न हो वह विशद कहलाता है । इस प्रकार दार्शनिक १. अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा। -सर्वार्थसिद्धि २. जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खत्ति भणिदमत्थेसु । . जं केवलेण णाणं हवदि हु जीवेण पच्चक्खं ॥ -प्रवचनसार गाथा ५८ ३. प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसांव्यवहारिकम् । परोक्षं शेषविज्ञानं प्रमाणे इति संग्रहः ॥ -लघीयस्त्रय श्लोक ३ ४. प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा । -न्यायविनि० श्लोक ३
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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