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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . . आचार्य सिद्धसेन ने प्रमाण के लक्षण में 'बाधवर्जित' पद जोड़कर स्वपरावभासक तथा बाधवर्जित ज्ञान को प्रमाण माना है' । तदनन्तर अकलंकदेव ने इस लक्षण में अविसंवादी और अनधिगतार्थग्राही-इन दो नये पदों का समावेश करके अवभासक के स्थान में व्यवसायात्मक पद का प्रयोग किया है । इसके बाद आचार्य विद्यानन्द ने पहले सम्यग्ज्ञान को प्रमाण का लक्षण बतलाकर पुनः उसे स्वार्थव्यवसायात्मक सिद्ध किया है । उन्होंने प्रमाण के लक्षण में अनधिगत या अपूर्व विशेषण नहीं दिया है । क्योंकि उनके अनुसार ज्ञान चाहे गृहीत अर्थ को जाने या अगृहीत को, वह स्वार्थव्यवसायात्मक होने से ही प्रमाण है । इसके अनन्तर आचार्य माणिक्यनन्दि ने प्रमाण के लक्षण में अपूर्व विशेषण का समावेश करके स्व
और अपूर्व अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा है । किन्तु उत्तरकालवर्ती आचार्यों ने प्रमाण का लक्षण करते समय सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यक् अर्थनिर्णय को ही प्रमाण बतलाया है। ___ इस प्रकार जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित प्रमाण के विभिन्न लक्षणों से यही फलित होता है कि प्रमाण को अविसंवादी या सम्यक् होना चाहिए । इस सम्यक् विशेषण में ही अन्य सब विशेषण अन्तर्भूत हो जाते हैं । प्रमाण के विषय में विशेष बात यही है कि ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है, अज्ञानरूप सन्निकर्षादि नहीं । ज्ञान का स्वसंवेदी होना भी आवश्यक है । क्योंकि स्व को नहीं जानने वाला ज्ञान पर को भी नहीं जान सकता है । इसी प्रकार
१. प्रमाणं स्वपरावभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् । -न्यायावतार श्लोक १ २. ( क ) प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् । -अष्टशती २. ( ख ) व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम् । -लघीयस्त्रय का० ६० ३. सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् । स्वार्थव्यवसायात्मकं सम्यग्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानत्वात् ।
-प्रमाणपरीक्षा पृ० १ । ४. गृहीतमगृहीतं वा यदि स्वार्थं व्यवस्यति ।
तन्त्र लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ॥ –तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १/१०/७८ ५. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । -परीक्षामुख १/१ ६. सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् । -न्यायदीपिका पृ० ३ . .
सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् । -प्रमाणमीमांसा १/१/२ .