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________________ प्रस्तावना क्योंकि जानने रूप क्रिया अथवा अज्ञाननिवृत्तिरूप क्रिया का साधकतम कारण चेतन ज्ञान ही हो सकता है, अचेतन सन्निकर्षादि नहीं। . - बौद्धों ने अविसंवादी तथा अज्ञात अर्थ को जानने वाले ज्ञान को प्रमाण माना है । बौद्धदर्शन में ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है, अज्ञान को नहीं । उनके यहाँ एक ही ज्ञान प्रमाण और फल-दोनों होता है । वहाँ विषयाकारता का नाम प्रमाण है और विषय की अधिगति का नाम फल है । सांख्यों ने श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्ति ( व्यापार ) को प्रमाण माना है । न्यायदर्शन में न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन ने उपलब्धि साधन को प्रमाण कहा है । उद्योतकर ने भी उपलब्धि के साधन को ही प्रमाण स्वीकार किया है । उदयनाचार्य ने यथार्थ अनुभव को प्रमाण माना है । वैशेषिकदर्शन में सर्वप्रथम कणाद ने प्रमाण के सामान्य लक्षण का निर्देश किया है । उन्होंने दोषरहित ज्ञान को प्रमाण कहा है । मीमांसादर्शन में प्राभाकरोंने अनुभूति तथा ज्ञातृव्यापार को प्रमाण माना है । भाट्टों ने अनधिगत और यथार्थ अर्थ का निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहा है । जैनदर्शन में प्रमाण का स्वरूप आचार्य गृद्धपिच्छ अपर नाम उमास्वामी का तत्त्वार्थसूत्र जैनदर्शन का प्रमुख सूत्रग्रन्थ है । उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्ज्ञान के भेदों को बतलाकर 'तत्प्रमाणे' सूत्र द्वारा सम्यग्ज्ञान में प्रमाणता का उल्लेख किया है तथा प्रमाणनयैरधिगमः' इस सूत्र द्वारा प्रमाण और नय को जीवादि तत्त्वों के अधिगम का उपाय बतलाया है । तत्त्वार्थसूत्रकार ने प्रमाण का निर्देश तो किया, किन्तु दार्शनिक दृष्टि से उसका कोई लक्षण नहीं बतलाया । . सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्र ने प्रमाण का दार्शनिक लक्षण प्रस्तुत किया है। उन्होंने आप्तमीमांसा में तत्त्वज्ञान को प्रमाण बतलाकर उसके अक्रमभावी और क्रमभावी-ये दो भेद किये हैं तथा तत्त्वज्ञान को स्याद्वादनयसंस्कृत बतलाया है' । आचार्य समन्तभद्र ने ही स्वयम्भूस्तोत्र में स्व और पर के अवभासक ज्ञान को प्रमाण बतलाया है। इसके अनन्तर १. तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । - क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम ॥ -आप्तमीमांस का० १०१ २. स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् । -स्वयम्भूस्तोत्र श्लोक ६३
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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