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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
में अहिंसा का रूप धारण कर लेता है। अतः भारतीय दर्शनों के इतिहास को समझने के लिए जैनदर्शन का विशेष महत्त्व है ।
प्रमाणमीमांसा
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सामान्यरूप से प्रमाण का लक्षण है - सम्यग्ज्ञानं । जो ज्ञान सम्यक् . अथवा समीचीन होता है वह प्रमाण कहलाता है । किन्तु आगमिक परम्परा में ज्ञान को सम्यक् तथा मिथ्या मानने का आधार दार्शनिक परम्परा से भिन्न है । आगमिक परम्परा में सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है और मिथ्यादर्शन युक्त ज्ञान मिथ्याज्ञान है। मिथ्यादृष्टि का ज्ञान व्यवहार में सत्य होने पर भी आगम की दृष्टि में मिथ्या है । परन्तु दार्शनिक परम्परा में ज्ञान के द्वारा प्रतिभासित विषय का अव्यभिचारी होना ही प्रमाणता की कसौटी है । यदि ज्ञान के द्वारा प्रतिभासित पदार्थ उसी रूप में मिल जाता है जिस रूप में ज्ञान ने उसे जाना था तो अविसंवादी होने से वह ज्ञान प्रमाण है और इससे भिन्न ज्ञान अप्रमाण है । आगम में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल - इन पाँच ज्ञानों को सम्यग्ज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और कुअवधि - इन तीन ज्ञानों को मिथ्याज्ञान कहा है । `तत्त्वार्थसूत्रकार ने संभवतः सबसे पहले सम्यग्ज्ञान के लिए प्रमाण शब्द का प्रयोग किया है ।
प्रमाण का स्वरूप
प्रमाण शब्द का सामान्यरूप से व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- ' प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्' । अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों की प्रमिति ( ज्ञान ) होती है. उसे प्रमाण कहते हैं । कुछ दार्शनिकों ने इसी व्युत्पत्ति का आश्रय लेकर प्रमा के करण अर्थात् साधकतम कारण ( साधकतमं कारणं करणम् ) को प्रमाण कहा है। वस्तु के यथार्थ ज्ञान को प्रमा या प्रमिति कहते हैं और उस प्रमा की उत्पत्ति में जो विशिष्ट कारण होता है वही प्रमाण है । प्रमाण के इस सामान्य लक्षण में विवाद न होने पर भी दार्शनिकों में प्रमा के करण के विषय में विवाद है । बौद्ध सारूप्य ( तदाकारता ) को प्रमिति का करण मानते हैं । सांख्य इन्द्रियवृत्ति को, नैयायिक - वैशेषिक इन्द्रियार्थसन्निकर्ष को, मीमांसक इन्द्रियको तथा प्राभाकर ज्ञातृव्यापार को प्रमा का करण मानते हैं । किन्तु जैन दार्शनिक ज्ञान को ही प्रमा का करण मानते हैं ।
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