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प्रस्तावना
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हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय - ये आठ कर्म हैं । जीव के औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक - ये पाँच भाव होते हैं । अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-ये पाँच परमेष्ठी होते हैं । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह - ये पाँच व्रत हैं ।
जैनदर्शन में प्रत्येक आत्मा कर्मों का नाश करके परमात्मा अर्थात् ईश्वर बन सकता है, किन्तु जैनदर्शनाभिमत ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं होता है । वह न तो कभी अवतार लेता है और न कभी संसार में लौटकर आता है । जो आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय - इन चार घातिया कर्मों का नाश कर देता है वह केवली अथवा अर्हन्त कहलाता है । अर्हन्त अवस्था में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यइन अनन्तचतुष्टयों की प्राप्ति हो जाती है । कुछ काल बाद वही आत्मा शेष चार अघातिया कर्मों का नाश करके सिद्ध हो जाता है । सिद्धावस्था ही मोक्ष की अवस्था है । ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है, । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र – ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग होते हैं । जैनदर्शन में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल - ये पाँच ज्ञान ' माने गये हैं । अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त - ये तीन जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्त हैं ।
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जैनदर्शन का महत्त्व -
भारतीय दर्शनों के इतिहास में जैनदर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है । भिन्न-भिन्न दार्शनिकों ने अपनी-अपनी स्वाभाविक रुचि, परिस्थिति या • भावना से वस्तुतत्त्व को जैसा देखा उसी को उन्होंने दर्शन के नाम से कहा । किन्तु किसी भी तत्त्व के विषय में कोई भी तात्त्विक दृष्टि ऐकान्तिक नहीं हो सकती है । सर्वथा भेदवाद या अभेदवाद, नित्यैकान्त . या क्षणिकैकान्त एकान्तदृष्टि है । प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है और कोई भी दृष्टि उन अनेक धर्मों का एक साथ प्रतिपादन नहीं कर सकती है । इस सिद्धान्त को जैनदर्शन ने अनेकान्त और स्याद्वाद के नाम से कहा है । जैनदर्शन का मुख्य उद्देश्य स्याद्वाद सिद्धान्त के आधार पर विभिन्न मतों का समन्वय करना है । विचार जगत् का अनेकान्त सिद्धान्त ही नैतिक जगत्