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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
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त्रैरूप्य माना है । इस प्रकार बौद्धदर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान - ये दो ही प्रमाण हैं । बौद्धों ने ज्ञान की उत्पत्ति में अर्थ को कारण माना है तथा ज्ञान अर्थाकारता भी मानी है । अर्थाकारता के द्वारा ही वे ज्ञान के प्रतिनियत विषय की व्यवस्था करते हैं ।
बौद्धों ने अवयवों से भिन्न कोई अवयवी नहीं माना है । उनके यहाँ अवयवों के समुदाय का नाम ही अवयवी है। आतान - वितान विशिष्ट तन्तुओं के समुदाय का नाम ही पट है । तन्तुसमुदाय को छोड़कर पर कोई पृथक् वस्तु नहीं है । बौद्धों के यहाँ विनाश को पदार्थ का स्वभाव माना गया है । अर्थात् पदार्थ प्रतिक्षण स्वभाव से ही विनष्ट होता रहता है । घट उत्पत्ति के समय से ही विनाश - स्वभाव वाला है, अतएव वह अपने विनाश के लिए मुद्गरादि कारणों की अपेक्षा नहीं रखता है, किन्तु वह स्वतः प्रतिक्षण विनष्ट होता रहता है । विनाश को पदार्थ का स्वभाव मानने के कारण ही बौद्धों ने प्रत्येक पदार्थ को क्षणिक माना है और सत्त्व हेतु के द्वारा सब पदार्थों में क्षणिकत्व की सिद्धि की है । जो पदार्थ अर्थक्रिया
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। घट जलधारण आदि
( अपना कार्य ) करता है वह सत् कहलाता है
. अर्थक्रिया करता है इसलिए वह सत् है ।
जैनदर्शन
जिस प्रकार विभिन्न दर्शनों के प्रवर्तक विभिन्न ऋषि- महर्षि हुए हैं उस प्रकार जैनदर्शन का प्रवर्तक कोई व्यक्ति विशेष नहीं है । जैन शब्द 'जिन' शब्द से बना है । जो व्यक्ति ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों और रागद्वेषादि भावकर्मों को जीतता है वह 'जिन' कहलाता है । ऐसे 'जिन' के द्वारा उपदिष्ट धर्म तथा दर्शन को जैनधर्म और जैनदर्शन कहते हैं । प्रत्येक युग में चौबीस तीर्थंकर होते हैं तथा वे अनादिकाल से चले आ रहे धर्म और दर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं । वर्तमान युग में ऋषभनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों ने जैनधर्म तथा दर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र जैनदर्शन का आद्य सूत्रग्रन्थ है । जैनदर्शन में जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये सात तत्त्व बतलाये गये हैं । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये छह द्रव्य माने गये