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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
तीन कर्मों की स्थिति को आयु कर्म के बराबर करने के लिए केवली दण्ड, . कपाट, प्रतर और लोकपूरण के भेद से चार प्रकार का समुद्घात करते हैं । इसी का नाम केवली समुद्घात है ।
समुद्घात के विषय में विशेष जानकारी के लिए गोमट्टसार जीवकाण्ड का आहारमार्गणाधिकार द्रष्टव्य है । ६२. उद्गमादि दोष-दिगम्बर साधु उद्गम, उत्पादन, एषणा और संयोजना आदि ४६ दोषों से रहित आहार को ग्रहण करते हैं । इनमें उद्गम दोष के औद्देशिक आदि १६ भेद हैं । ये दोष दानदाता के अभिप्राय आदि के कारण होते हैं । उत्पादन दोष के भी १६ भेद हैं । एषणा दोष के १० भेद हैं । इनके अतिरिक्ति संयोजना आदि ४ दोष और होते हैं । इस प्रकार आहार के कल ४६ दोष होते हैं । उदगम दोष का एक भेद औद्देशिक है । श्रमणों के निमित्त से बनाये गये भोजनादि को औद्देशिक कहते हैं । इन दोषों की विशेष जानकारी के लिए मूलचार देखना चाहिए। ६३. आहारक-औदारिक, वैक्रियिक और आहारक-इन तीन शरीरों के तथा आहार, शरीर, इन्द्रिय, प्राणापान, भाषा और मन-इन छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल-परमाणुओं के ग्रहण करने का नाम आहार है । इस प्रकार के आहार को ग्रहण करने वाला जीव. आहारक कहलाता है। ६४. अनाहारक-जो जीव उक्त प्रकार के आहार को ग्रहण नहीं करता है वह अनाहारक कहलाता है । ६५. प्रतिक्रमण किये गये अपराध के प्रति मेरा दोष मिथ्या हो, गुरु से ऐसा निवेदन करके पुनः वैसे दोषों से बचते रहना प्रतिक्रमण कहलाता है । यह प्रायश्चित नामक आभ्यन्तर तप का एक भेद है । ६६. ईश्वरवाद-नैयायिक-वैशेषिक मानते हैं कि ईश्वर इस जगत् का कर्ता है । वह सब कार्यों की उत्पत्ति में निमित्त कारण होता है । तनु, करण, भूवन आदि सब पदार्थ उसी के द्वारा उत्पन्न होते हैं । ईश्वर अनादिमुक्त, सर्वज्ञ, एक और व्यापक है । इसी का नाम ईश्वरवाद है । ६७. प्रकृतिकर्तृत्ववाद-सांख्य मानते हैं कि प्रकृति की है और पुरुष भोक्ता है । प्रकृति पुरुष के लिए ही सब काम करती है । प्रकृति से ज्ञान, अहंकार, ११ इन्द्रियाँ, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ तथा आकाशादि पाँच भूतइस प्रकार कुल २३ पदार्थ उत्पन्न होते हैं । यही प्रकृतिकर्तृत्ववाद है ।