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परिशिष्ट-२ : पारिभाषिक शब्द
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६८. सेश्वरसांख्य-सामान्यरूप से सांख्य ईश्वर को नहीं मानते हैं । किन्तु कुछ सांख्यमतानुयायी ईश्वर की सत्ता को मानते हैं । इसी मत को सेश्वरसांख्य कहते हैं । इसी का नाम योगदर्शन भी है। ६९. वेदापौरुषेयवाद-मीमांसक मानते हैं कि वेदों का कोई रचयिता नहीं है । वेद अनादिकाल से इसी रूप में चले आये हैं । लौकिक शब्द और वैदिक शब्द भिन्न-भिन्न हैं । यही वेदापौरुषेयवाद है । ७०. स्फोटवाद-भर्तृहरि आदि वैयाकरण स्फोटवादी हैं । वे मानते हैं कि शब्द अर्थ का वाचक नहीं होता है । किन्तु शब्दों के द्वारा स्फोट नामक एक तत्त्व की अभिव्यक्ति होती है ।.स्फोट एक, नित्य तथा व्यापक है । ऐसा स्फोट पदार्थ का वाचक होता है । यही स्फोटवाद है । ७१. पद स्फोट-जो स्फोट पद के अर्थ का बोध कराता है वह पद स्फोट कहलाता है। ७२. वाक्य स्फोट-जो स्फोट वाक्य के अर्थ का बोध कराता है वह वाक्य स्फोट कहलाता है । . ७३. पद-परस्पर में सापेक्ष किन्तु अन्य वर्गों की अपेक्षा से रहित ऐसा वर्गों का जो समुदाय है उसको पद कहते हैं । जैसे घट एक पद है । पद : और शब्द दोनों पर्यायवाची हैं । ७४. वाक्य-परस्पर सापेक्ष पदों के निरपेक्ष समुदाय को वाक्य कहते हैं । जैसे महावीर अन्तिम तीर्थंकर हैं । यह एक वाक्य है । ७५. अपोहवाद-अपोहवाद बौद्धदर्शन का एक सिद्धान्त है । बौद्धों की मान्यता है कि शब्द अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते हैं । वे तो अन्य पदार्थों का अपोह ( निषेध ) करते हैं । गौ शब्द गाय को न कहकर गाय में अगौ ( गौ से भिन्न सब वस्तुओं) का निषेध करता है । यही अपोहवाद या अन्यापोहवाद है। ७६. क्षणभंगवाद-यह बौद्धदर्शन का विशिष्ट सिद्धान्त है । इसके अनुसार कोई भी वस्तु एक क्षण ही ठहरती है और दूसरे क्षण में उसका भंग ( नाश ) हो जाता है । प्रत्येक वस्तु का प्रत्येक क्षण में स्वाभाविक नाश होता रहता है । यही क्षणभंगवाद है । ७७. समवाय-समवाय एक सम्बन्ध है । अयुतसिद्ध ( अपृथक्भूत )